________________ 350 जीतकल्प सभाष्य 796. धर्म-कथा से प्रेरित होकर चोर-सेनापति उपशान्त हो गया। उसने माता आदि सबको छोड़ दिया और सारा धन समर्पित कर दिया। साधु को ऐसी ही वचनगुप्ति करनी चाहिए। 797. कायगुप्ति में मार्गवर्ती साधु का उदाहरण है। सार्थ के रहने पर उसको कहीं स्थण्डिल भूमि की प्राप्ति नहीं हुई। 798, 799. किसी भी प्रकार उसको एक पैर टिकाने जितना स्थान मिला। उसने एक पैर पर स्थित होकर सारी रात बिता दी। उसका शरीर अकड़ गया लेकिन अस्थण्डिल भूमि में उसने पैर नहीं रखा। साधु को इसी प्रकार कायगुप्त होना चाहिए। (अथवा कायगुप्ति का दूसरा उदाहरण है) अत्यधिक भय होने पर भी एक साधु ने गति-भेद नहीं किया। 800. शक्र ने उस साधु की प्रशंसा की। शक्र की बात पर अश्रद्धा करने वाले देवता ने आकर अनेक सूक्ष्म मेंढकों की विकुर्वणा कर दी। यतनापूर्वक वह धीरे-धीरे चलने लगा। 801, 802. देवता ने हाथी की विकुर्वणा की, वह उसके पीछे चिंघाड़ता हुआ आने लगा लेकिन फिर भी साधु की गति में अंतर नहीं आया। हाथी ने साधु को सूंड से ऊपर उठाकर नीचे गिरा दिया। नीचे गिरता हुआ वह साधु बोला-'यदि मेरे द्वारा जीवों की विराधना हुई हो तो मेरे पाप मिथ्या हों।' उसने स्वयं की चिन्ता नहीं की। देव संतुष्ट होकर प्रणाम करके चला गया। 803. गुप्तिद्वार का कथन कर दिया। अब प्रसंग से अगुप्त गुप्ति अर्थात् समिति द्वार को कहूंगा। समिति माताएं हैं/समिति में प्रवचन समाया हुआ है। 804. गमन क्रिया को समिति कहते हैं। श्रामण्य में परिणत साधु का सम्यक् रूप से गमन करना समिति है। वह ईर्या आदि पांच प्रकार की है। 1. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 22 / 2. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 23 / 3. जिन-प्रवचन के अनुरूप सम्यक् प्रवृत्ति करना समिति है। उत्तराध्ययन सूत्र में तीन गुप्तियों का भी समिति में समावेश करके आठ समितियों को स्वीकार किया है। इसका कारण यह है कि गुप्ति में प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों होती है। गुप्ति के तीन रूप बनते हैं -1. अशुभ योगों की निवृत्ति 2. शुभ योगों की प्रवृत्ति तथा 3. शुभ योगों से भी निवृत्ति। 1. उ 24/3, शांटी प.५१४ ; समितिः सम्यक् सर्ववित् प्रवचनानुसारितया इतिः, आत्मनः चेष्टा समितिः तान्त्रिकी संज्ञा ईर्यादिचेष्टासु पंचसु। 2. उशांटी प.५१३, 514 / 4. मांक-माने धातु के आधार पर 'मायाओ' का अर्थ है-समाया हुआ है। समिति में द्वादशांग प्रवचन समाया हुआ है। यदि मायाओ की मातरः संस्कृत छाया की जाए तो इसका अर्थ प्रवचन-माता होगा। जिसका तात्पर्य है कि समितियों से प्रवचन की उत्पत्ति होती है। भगवती आराधना में उल्लेख मिलता है कि समिति और गुप्तियां ज्ञान, दर्शन और चारित्र की वैसे ही रक्षा करती हैं, जैसे माता अपने पुत्र की।' 1. उशांटी प.५१३,५१४। २.भआ 1179 विटी पृ.५९३ ; यथा माता पुत्राणां अपायपरिपालनोद्यता एवं गप्तिसमितयोऽपि व्रतानि पालयन्ति।