________________ अनुवाद-जी-९ 351 805. साधु समिति में प्रमाद कैसे करता है, उसे सुनो। साधु ऊंचा मुख करके वार्ता में रत रहकर चलता है तो वह प्रमाद है। 806. यदि साधु गृहस्थ सम्बन्धी सावध भाषा बोलता है, ऊंची आवाज में बोलता है तो उसे भाषा सम्बन्धी प्रमाद जानना चाहिए। 807. भिक्षाचर्या के लिए भ्रमण करते हुए भिक्षा-ग्रहण के समय जो शंका आदि दोषों में उपयुक्त नहीं होता, वहां एषणा समिति में प्रमाद होता है। 808. उपकरणों को ग्रहण करने एवं रखने में जो अनुपयुक्त होता है, वह चौथी समिति का प्रमाद है। इस प्रमाद के छह भंग हैं। 809. आदान का अर्थ है-ग्रहण, नि उपसर्ग अधिक अर्थ में प्रयुक्त होता है। खिव-क्षिप् धातु फेंकने के अर्थ में प्रयुक्त होती है। अधिक उत्क्षेप को निक्षेप कहते हैं। 810. प्रतिलेखन और प्रमार्जन की चतुर्भगी इस प्रकार है• न प्रतिलेखन, न प्रमार्जन। * प्रतिलेखन, प्रमार्जन नहीं। * प्रतिलेखन नहीं, प्रमार्जन। * प्रतिलेखन और प्रमार्जन दोनों। 811, 812. प्रतिलेखन और प्रमार्जन रूप चतुर्थ भंग की चतुर्भंगी इस प्रकार है दुष्प्रतिलेखन दुष्प्रमार्जन। दुष्प्रतिलेखन सुप्रमार्जन। सुप्रतिलेखन दुष्प्रमार्जन। सुप्रतिलेखन सुप्रमार्जन। 813. प्रथम चतुर्भंगी के प्रथम तीन भंग (न प्रतिलेखन, न प्रमार्जन आदि) तथा द्वितीय चतुर्भंगी के भी प्रथम तीन भंग (दुष्प्रतिलेखन, दुष्प्रमार्जन आदि)-ये छह भंग प्रमादी के होते हैं। 814. उच्चार, प्रस्रवण, श्लेष्म और नासिकामल आदि के परिष्ठापन में भी प्रमादी साधु के छह भंग होते 815. उच्चार आदि का परिष्ठापन होता है। जो शरीर से तीव्र गति से बाहर निकलता है, वह उच्चारमल है। प्रस्रवित होने के कारण कायिकी को प्रस्रवण कहा जाता है। 816. जो शरीर को उत्सर्ग के लिए प्रेरित करता है, वह उच्चार तथा जो प्रायः सवित होता है, उसकी प्रसवण संज्ञा है। जो खे-शून्य में घूमता है, वह खेल/श्लेष्म है। नासिका का मल सिंघाण है। 1. उत्तराध्ययन सूत्र में प्रतिलेखना के छह दोष बताए हैं। -1. आरभटा 2. सम्मर्दा 3. मोसली 4. प्रस्फोटना ६.विक्षिप्तता 6. वेदिका। वहां सात दोषों का उल्लेख भी मिलता है। इस संदर्भ में विस्तार हेतु देखें श्री भिक्षु भा. 1 पृ. 442, 443 /