________________ अनुवाद-जी-६ 345 कार्यों के लिए उपाश्रय से बाहर निर्गमन होता है। 740. आहार जिसके आदि में है (मूलसूत्र की छठी गाथा में), वह आहार चार प्रकार का होता है-१. भक्त 2. पान 3. खाद्य और 4. स्वाद्य। 741. मूलसूत्र (जीसू 6) में आए 'आदि' शब्द से शय्या, संस्तारक, वस्त्र, पात्र, पादप्रोञ्छन, ओघ उपधि और उपग्रह उपधि आदि गृहीत हैं। 742-45. अथवा ग्लान, आचार्य, बाल, वृद्ध, क्षपक, दुर्बल, शैक्ष, महोदर और प्राघूर्णक के प्रायोग्य आहार, शय्या, औषध, भैषज आदि के लिए गुरु से पूछकर उनकी अनुज्ञा लेकर सूत्रानुसार उपयुक्त विधि से जिस रूप में आहार आदि ग्रहण किया है, उसकी गुरु के समक्ष आलोचना करता है। सूत्र के अनुसार आलोचना करने मात्र से वह शुद्ध हो जाता है। 746. शिष्य प्रश्न पूछता है कि विधिपूर्वक ग्रहण करने से भी अशुद्ध होता है, तब फिर आहार आदि को ग्रहण ही नहीं करना चाहिए। 747. आचार्य उत्तर देते हैं-'शिष्य! यदि बिना आहार ग्रहण किए ही संयम-योग सध जाएं तो आहार आदि का परिग्रह कौन करेगा? 748. आहार आदि ग्रहण न करने से एक बड़ा दोष यह होता है कि आचार्य आदि परित्यक्त हो जाते हैं तथा ज्ञान आदि का विच्छेद हो जाता है। 749. इसलिए आहार आदि को विधिपूर्वक अवश्य ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार मूल गाथा का 'आहारादीगहणे' एक चरण समाप्त हो गया। 750. निर्गम गुरु के पास से तथा अपने स्थान से भी होता है अतः निर्गम अनेक हैं। कुल आदि से सम्बन्धित निर्गम के बारे में कहूंगा। 751. कुल', गण, संघ और चैत्य सम्बन्धी कार्य तथा तत्रस्थ द्रव्य-विनाश का निवारण-इन दो कारणों के उपस्थित होने पर गुरु के पास से निर्गमन करना चाहिए। 752. प्रातिहारिक संस्तारक आदि को पुनः लौटाने के लिए गुरु के पास से अथवा वसति से निर्गमन करना चाहिए। 753. गाथा (मूलसूत्र की छठी गाथा) के पश्चार्द्ध में जो उच्चार और अवनि शब्द आया है, उसमें अवनि शब्द भूमि का वाचक है इसलिए यहां उच्चारभूमि अर्थ होगा। 754. विहार शब्द स्वाध्याय का सूचक है। अवनि सहित विहार शब्द स्वाध्याय-भूमि का वाचक है। चैत्य-वंदन के लिए दूर या निकट निर्गमन होता है। 1-3. एक आचार्य के शिष्य-समूह को कुल, तीन आचार्य के शिष्य-समूह को गण तथा अनेक आचार्यों के शिष्य समूह को संघ कहा जाता है। कुछ आचार्यों के अनुसार एक सामाचारी का पालन करने वाले साधु-समुदाय को , गण कहा जाता है।