________________ 344 जीतकल्प सभाष्य 730. आलोचना आदि दसों प्रायश्चित्तों का यह संक्षेपार्थ है। अपने-अपने स्थान पर मैं विस्तारपूर्वक इनको कहूंगा। 5. जो अवश्यकरणीय योग हैं, उनमें निरतिचार रूप से उपयुक्त रहने वाले छद्मस्थ की विशोधि' को यति लोगों ने आलोचना कहा है। 731. करणीय कार्य कौन से हैं? (आचार्य उत्तर देते हैं-) जो तीर्थंकर और गणधरों द्वारा उपदिष्ट हैं, सूत्रानुसारी हैं, संयम को पुष्ट करने वाले तथा दुःख-क्षय करने के हेतु हैं। 732. 'जे' शब्द से जितने निर्दिष्ट हैं। युज-योगे धातु से काय (मन, वचन) आदि तीन योग गृहीत हैं। जो जीव को योजित करते हैं, प्रेरित करते हैं, वे योग हैं। 733. संक्षेप में ये मुखवस्त्रिका (प्रतिलेखन) से लेकर उत्सर्ग तक तथा सूत्र में दिन-रात सम्बन्धी सामाचारी जो जहां कही गई है, उसे योग जानना चाहिए। 734. जब मुनि बिना बाधा के निरतिचार रूप से उन योगों में उपयुक्त रहता है, तब आलोचना मात्र से पाप की शुद्धि हो जाती है। 735. कर्म को छद्म कहा गया है, वह चार प्रकार का है-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय। 736. शिष्य प्रश्न पूछता है कि जब मुनि करणीय योग में निरतिचार रूप से उपयुक्त होता है, तब उसके क्या शुद्धि होती है और क्या अशुद्धि? 737. गुरु कहते हैं जो सूक्ष्म आस्रव क्रिया अथवा सूक्ष्म प्रमाद है, उससे लगने वाला कर्म और अतिचार छद्मस्थ नहीं जान सकता। 738. वे सूक्ष्म अतिचार आलोचना करने मात्र से शुद्ध हो जाते हैं अतः तीनों योगों से सम्बन्धित आलोचना करनी चाहिए। 739. आलोचना करने वाला कौन होता है? (आचार्य उत्तर देते हैं -) यति आलोचना करता है। यति शब्द से साधु निर्दिष्ट है। पांचवीं गाथा की व्याख्या समाप्त हो गई, अब छठी गाथा को इस प्रकार कहूंगा। 6. आहार आदि ग्रहण में तथा उच्चारभूमि, विहारभूमि', चैत्य-वंदन, यति-वंदन आदि अनेकविध 1. चूर्णिकार के अनुसार विशोधि का अर्थ है-कर्मबंधन से निवृत्ति तथा शल्यरहित होना / १.जीचू पृ.७ ; विसोही कम्मबंधनिवित्ती निसल्लया य। 2. दशवैकालिक जिनदासचूर्णि में उन योगों का उल्लेख है, जिनकी शुद्धि आलोचना करने मात्र से हो जाती है। परस्पर अध्ययन-अध्यापन, परिवर्तना, केशलुंचन, वस्त्रों का आदान-प्रदान आदि के आज्ञा के बिना करने से अविनय होता है, इसकी शुद्धि आलोचना से हो जाती है। १.दशअचूप.१४; परोप्परस्स-वायण-परियट्टण-लोयकरण-वत्थदाणादि अणालोइए गुरुणंअविणयो त्ति आलोयणारिहं। 3. उपाश्रय में अस्वाध्यायिक के समय जो स्वाध्यायभूमि होती है, उसे विहारभमि कहा जाता है। १.निचू 2 पृ.१२० ; असज्झाए सज्झायभूमी जा सा विहारभूमी।