________________ अनुवाद-जी-४,५ 343 719. गुरु के समक्ष जिसकी आलोचना नहीं की जाती, मिथ्या दुष्कृत करने मात्र से जो पाप शुद्ध हो जाता है, वह प्रतिक्रमणार्ह प्रायश्चित्त है। 720. जिस प्रकार अजानकारी में श्लेष्म आदि बाहर निकलता है, उससे हिंसा आदि दोष लगता है लेकिन उसमें तप रूप प्रायश्चित्त कुछ नहीं मिलता। 721. जिस पाप का सेवन करने के पश्चात् उसकी गुरु के पास सम्यक्आलोचना की जाती है, गुरु द्वारा निर्दिष्ट प्रतिक्रमण किया जाता है, उसे तदुभयार्ह प्रायश्चित्त जानना चाहिए। 722. अधिक या कम अकल्प्य आहार ग्रहण करने पर उसका विधिपूर्वक परिष्ठापन किया जाता है, वह विवेकार्ह प्रायश्चित्त है। 723. कायिक चेष्टा के निरोध मात्र से जो पाप शुद्ध हो जाता है, वह व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त कहलाता है, जैसे, दुःस्वप्न आदि का प्रायश्चित्त। 724. निर्विगय से लेकर छह मास पर्यन्त तप से जिस पाप की विशुद्धि होती है, वह तपोर्ह प्रायश्चित्त कहलाता है। अब मैं छेदार्ह प्रायश्चित्त के बारे में कहूंगा। 725. जिस पाप के प्रतिसेवन से पूर्वपर्याय दूषित होने के कारण शेष पर्याय की रक्षा के लिए उतने पर्याय का छेद कर दिया जाता है, वह छेदार्ह प्रायश्चित्त है। 726. जिस पाप का प्रतिसेवन करने पर पूर्व पर्याय का पूर्ण छेद करके पुनः महाव्रतों का आरोपण किया जाता है, वह मूलाई प्रायश्चित्त है। 727,728. जिस प्रतिसेवना में कुछ काल तक मुनि को पांचों ही मूल व्रतों में अनवस्थाप्य रखा जाता है अर्थात् पुनः दीक्षा नहीं दी जाती फिर तप का आचरण करने के पश्चात् उस दोष से उपरत होने के बाद महाव्रतों की आरोपणा की जाती है, वह अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त है। अब मैं पाराञ्चित प्रायश्चित्त के बारे में कहूंगा। 729. 'अञ्चु' धातु गति और पूजा के अर्थ में है। जिस प्रतिसेवना में तप आदि के द्वारा क्रमशः अपराध का पार पाया जाता है, वह पाराञ्चित' प्रायश्चित्त है। वह लिंग, क्षेत्र, काल और तप के भेद से चार प्रकार १.बृहत्कल्पभाष्य में भी पाराञ्चित तप के निम्न निरुक्त मिलते हैं• साधु जिस प्रायश्चित्त का वहन करके संसार-समुद्र के तीर-अनुत्तर निर्वाण को प्राप्त कर लेता है, वह पाराञ्चित है। . •जो शोधि प्रायश्चित्त के पार को प्राप्त है अर्थात् अंतिम प्रायश्चित्त है। प्रायश्चित्त प्राप्त कर्ता जिस तप की पूर्णता पर अपूजित नहीं होता अपितु श्रमण संघ की पूजा प्राप्त करता है, वह पाराञ्चित है, उपचार से साधु भी पाराञ्चित कहलाता है। * जिसमें लिंग, क्षेत्र, काल एवं तप के द्वारा अपराध का पार पाया जाता है, वह पाराञ्चित है। १.बभा 4971 ; अंचुगति पूयणम्मि य, पारं पुणऽणुत्तरं बुधा बिंति।सोधीय पारमंचइ,ण यावि तदपूतियं होति॥ २.निरुक्त कोश पृ.१९९।