________________ 342 जीतकल्प सभाष्य 710. संवर और निर्जरा-ये दोनों मोक्ष के कारण हैं। मोक्षपथ, मोक्ष-हेतु और मोक्ष-कारण-ये तीनों एकार्थक हैं। 711. संवर और निर्जरा-इन दोनों का पथ, हेतु और कारण तप है। तप का प्रधान अंग प्रायश्चित्त जानना चाहिए। 712. बारह प्रकार का तप प्रायश्चित्त के दश भेदों में समाविष्ट होता है इसलिए तप का प्रधान अंग प्रायश्चित्त है। 713. दूसरी गाथा के पश्चार्द्ध में जो ज्ञान की बात कही है, उसका सार इस तीसरी गाथा में वर्णित है। 3. ज्ञान का सार चारित्र है, चारित्र का सार निर्वाण' है। चारित्र को साधने के लिए मोक्षार्थी व्यक्ति को अवश्य ही प्रायश्चित्त को जानना चाहिए। 714. सामायिक (आचारांग) आदि ग्रंथ से लेकर बिंदुसार पर्यन्त श्रुत ज्ञान का सार चारित्र है। चारित्र का सार निर्वाण है। 715. निर्वाण का अनन्तर चारित्र तथा चारित्र का अनन्तर ज्ञान है, ज्ञान की विशुद्धि से चारित्र की विशुद्धि होती है। 716. चारित्र की विशुद्धि से शीघ्र ही निर्वाण का फल प्राप्त होता है। वह चारित्रशुद्धि प्रायश्चित्त के अधीन जाननी चाहिए। 717. इसलिए सूत्र में प्रायश्चित्त के ये गुण कहे गए हैं। मोक्षार्थी व्यक्ति को ये दश प्रकार के प्रायश्चित्त जानने चाहिए। 4. दश प्रकार के प्रायश्चित्त हैं-१. आलोचना 2. प्रतिक्रमण' 3. उभय 4. विवेक 5. व्युत्सर्ग 6. तप 7. छेद 8. मूल 9. अनवस्थाप्य 10. पाराञ्चित। 718. आलोचनार्ह का अर्थ है-जो पाप किए हैं, उनको आ-मर्यादा से गुरु के समक्ष प्रकट करना, जिससे कृत पाप की विशोधि हो, यह प्रायश्चित्त का प्रथम भेद है। १.निर्वाण का अनन्तर कारण चारित्र तथा उसका कारण ज्ञान है। चारित्र के लिए ज्ञान अनन्तर कारण है अत: ज्ञान से चारित्र और चारित्र से निर्वाण की प्राप्ति होती है। १.जीचू पृ.५; निव्वाणस्स अणंतरकारणं चरणं, कारणकारणं नाणं। चरणस्स कारणं नाणमणंतरं। नाणाओ चरणं, चरणाओ निव्वाणं ति। 2. आवश्यक नियुक्ति में प्रतिक्रमण के निम्न पर्याय मिलते हैं -प्रतिक्रमण, प्रतिचरण, परिहरण, वारणा, निवृत्ति, निंदा, गर्दा और शोधि। प्रतिक्रमण का अर्थ है-भूतकाल के सावद्ययोग से निवृत्ति / आवश्यक चूर्णि के अनुसार प्रतिक्रमण का अर्थ है-दोषों का पुनः सेवन न करने का संकल्प तथा उचित प्रायश्चित्त का स्वीकरण अथवा प्रमादवश असंयमस्थान में चले जाने पर पुनः स्वस्थान (संयम में आना) अथवा औदयिकभाव से क्षायोपशमिक भाव में लौटना। 1. आवनि 824 ; पडिकमणं पडियरणा, परिहरणा वारणा नियत्ती य। निंदा गरिहा सोधी, पडिकमणं अट्टहा होति॥ 2. विभा 3572; पडिक्कमामि त्ति भूयसावज्जओ निवत्तामि। 3. आवचू 2 पृ. 48; पडिक्कमामि नाम अपुणक्करणताए अब्भुटेमि अहारिहं पायच्छित्तं पडिवग्जामि। 4. आवचू 2 पृ. 52 /