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________________ अनुवाद-जी-२-४ 341 अभाव में आज्ञा व्यवहार से व्यवहार करना चाहिए, जो कुछ अंशों में श्रुतव्यवहार के समान है। 700. आज्ञा व्यवहार के अभाव में धारणा व्यवहार का प्रयोग करना चाहिए, जो श्रुत व्यवहार के एक देश में प्रवर्तित होता है। 701. धारणा व्यवहार के पश्चात् जीत का क्रम है। यहां जीतकल्प का प्रसंग है। यह व्यवहार सापेक्ष है, जब तक तीर्थ का अस्तित्व है, तब तक जीतव्यवहार का प्रयोग होता है। 702. जीतव्यवहार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पुरुष, प्रतिसेवना, धृतिबल, संहनन आदि की अपेक्षा से दिया जाता है। 703. शिष्य की जिज्ञासा पर यह सब मैंने प्रसंगानुसार कहा। अब मैं जीव की शोधि के बारे में कहूंगा, जसे प्राप्त करके वह परम सुसमाहित बन जाता है। 704. 'जीव' धातु प्राण-धारण करने के अर्थ में है। आयु आदि प्राण हैं अथवा जो जीता है, जीएगा या जिसने जीया है, वह जीव है। 705. जैसे वस्त्र का शोधन पानी आदि से होता है, वैसे ही कर्म-मल से कलुषित जीव की विशोधि प्रायश्चित्त से होती है। 706. यह प्रायश्चित्त उत्कृष्ट है। परम और प्रधान -ये दोनों शब्द एकार्थक हैं। किसकी परम विशोधि है? प्रायश्चित्त करने वाले जीव की। 2. संवर और निर्जरा मोक्ष के पथ हैं। इनका भी हेतु तप है, तप का प्रधान अंग प्रायश्चित्त है। 707. संवर, घट्टन और पिधान' - ये तीनों शब्द एकार्थक हैं। संवर दो प्रकार का होता है-देश संवर और सर्व संवर। इसी प्रकार निर्जरा भी दो प्रकार की होती है। (देश निर्जरा और सर्व निर्जरा) 708. आस्रव द्वार का संवरण करने वाला व्यक्ति नए कर्मों का उपार्जन नहीं करता है, पूर्व अर्जित कर्म के क्षपण को निर्जरा जानना चाहिए। 709. शैलेशी दशा को प्राप्त अंतिम दो समय में स्थित जीव के सर्व संवर होता है। शेष समय में देश निर्जरा होती है। १.जीतव्यवहार के संदर्भ में व्यवहारभाष्य की टीका में एक प्रश्न उपस्थित किया गया है कि जिस समय गौतमस्वामी ने पंचविध व्यवहार' सूत्र की प्ररूपणा की, तब आगम व्यवहार था, उन्होंने श्रुत, आज्ञा आदि व्यवहारों का प्रवर्तन क्यों किया? इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है कि सूत्र का विषय अनागत काल भी होता है। भविष्य में चार व्यवहार नहीं रहेंगे अत: जीतव्यवहार का प्रवर्तन किया गया। व्यवहार का प्रयोग काल और क्षेत्र सापेक्ष होता है। तीर्थ की अवस्थिति तक जीत व्यवहार रहता है अत: इसका उपदेश पहले ही दे दिया गया है। १.व्यभा 3885 सुत्तमणागयविसयं, खेत्तं कालं च पप्प ववहारो। होहिंति न आइल्ला, जा तित्थं ताव जीतो तु। २.जीसू 2 में आए 'जं च णाणस्स' पाठ का सम्बन्ध जीसू गा.३ से है अत: उसका अनुवाद अगली गाथा में देखें। ३.पिधान का प्राकृत में पिहण रूप बन गया है। 4. चूर्णिकार के अनुसार प्राणवध आदि आस्रवों का निरोध संवर है। १.दशजिघू प.१६२,१६३, संवरो नाम पाणवहादीण आसवाणं निरोहो भण्णइ।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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