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________________ 340 जीतकल्प सभाष्य 686. यह सारा जीतव्यवहार जानना चाहिए। यह जीतव्यवहार अनवद्य-पापरहित, विशोधिकर तथा संविग्न मुनियों के द्वारा आचीर्ण है। 687. जो जीतव्यवहार सावध है, उस जीत से व्यवहार नहीं होता। जो जीत निरवद्य है, उस जीत से व्यवहार होता है। 688. (शिष्य प्रश्न पूछता है-) कौन सा जीत सावध होता है और कौन सा निरवद्य? किसको सावध दिया जाता है और किसको निरवद्य? 689. अपराधी के शरीर पर राख लगाना, कारागृह में बंदी बनाना. हड़ियों की माला पहनाना तथा पेट के बल पर रेंगने का दण्ड देना -ये सावध जीत हैं। दशविध प्रायश्चित्त निरवद्य जीत हैं। 690. प्रायः दोष का सेवन करने वाला, निद्धंधस-अकृत्यसेवी तथा प्रवचन के प्रति निरपेक्ष-इन दोषों से युक्त साधु को सावध जीत का प्रायश्चित्त दिया जाता है। 691. संविग्न, प्रियधर्मा, अप्रमत्त, पापभीरु साधु यदि कदाचित् प्रमाद से स्खलना कर ले तो उस साधु को निरवद्य जीत का प्रायश्चित्त दिया जाता है। 692. जो जीत अशोधिकर होता है, उस जीत से व्यवहार नहीं होता। जो जीत शोधिकर होता है, उस जीत से व्यवहार होता है। 693. जो जीत अशोधिकर है, पार्श्वस्थ तथा प्रमत्त संयतों के द्वारा आचीर्ण है, महान् व्यक्तियों द्वारा आचरित होने पर भी उस जीत से व्यवहार नहीं करना चाहिए। 694. संवेगपरायण और दान्त एक भी आचार्य के द्वारा जिस जीत का प्रयोग किया गया हो, उस जीत से व्यवहार करना चाहिए। 695. इस प्रकार जो धीर और विद्वान् श्रुतधरों के द्वारा देशित तथा प्रशंसित है, उस यथोपदिष्ट पंचविध व्यवहार का सार मैंने संक्षेप में कहा है। 696, 697. जिसके मुख में लाख जिह्वाएं हैं, वह भी व्यवहार के सम्पूर्ण अर्थ को विस्तार से कहने में समर्थ नहीं होता किन्तु विद्वानों द्वारा प्रशंसित इस व्यवहार के गुणों का कथन आप लोगों को कहा गया है, यह द्वादशांगी का नवनीत है। 698, 699. पांचों व्यवहार के रहते हुए किस व्यवहार का प्रयोग करना चाहिए? शिष्य के पूछने पर आचार्य उत्तर देते हैं -आगम व्यवहार का प्रयोग करना चाहिए, उसके अभाव में श्रुत से, श्रुत व्यवहार के 1. आचार्य मलयगिरि के अनुसार गाथा में आए 'तु' शब्द से गधे पर बिठाकर पूरे ग्राम में घुमाना आदि भी सम्मिलित है। १.व्यभा 4544 मटी प.९३ ; तु शब्दत्वात् खरारूढं कृत्वा ग्रामे सर्वतः पर्यटनम्। 2,3. टीकाकार मलयगिरि ने धीर का अर्थ तीर्थंकर तथा विदु का अर्थ चतुर्दशपूर्वी किया है। १.व्यभा 4550 मटी प. 93 / आगमव्यवहारी आगम से व्यवहार करता है, श्रुत से नहीं, इसे भाष्यकार ने एक उदाहरण से समझाया है। दीपक का प्रकाश सूर्य के प्रकाश को विशिष्ट नहीं बनाता अतः बलीयान् के रहने पर कम शक्ति वाले का प्रयोग उचित नहीं होता अतः आगम व्यवहार के उपस्थित होने पर श्रुत से व्यवहार नहीं किया जाता।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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