________________ अनुवाद-जी-१ 339 671. अथवा इन अन्य योग्यताओं से युक्त आचार्य धारणा व्यवहार से व्यवहार का प्रयोग करते हैं। 672, 673. वैयावृत्त्यकर तथा देशाटन करने वाला शिष्य अपने बुद्धि-दौर्बल्य के कारण अधिक छेदसूत्रार्थ को धारण नहीं कर सकता, वैसी परिस्थिति में आचार्य कुछ उद्धृत अर्थपदों को देते हैं, उन छेदसूत्रों के आंशिक अर्थपदों को धारण करके व्यवहार का सम्पादन किया जाता है, यह धारणा व्यवहार 674. वत्स! धारणा व्यवहार का मैंने संक्षेप में यथाक्रम से वर्णन किया, अब मैं जीत व्यवहार को यथाक्रम से कहूंगा, उसे तुम सुनो। 675. जो व्यवहार आचार्य अथवा बहुश्रुत के द्वारा वृत्त, अनुवृत्त तथा प्रवृत्त हुआ है, वह पांचवां जीतकल्प नामक व्यवहार है। 676. जो महापुरुषों के द्वारा एक बार प्रयुक्त होता है, वह वृत्त, दूसरी बार प्रयुक्त होता है, वह अनुवृत्त तथा अनेक बार प्रयुक्त होता है, वह प्रवृत्त होता है। 677. बहुश्रुत आचार्यों के द्वारा अनेक बार प्रयोग किये जाने पर जिसका निवारण नहीं होता, वह वृत्तानुवृत्त जीत से प्रामाणिक हो जाता है। (वह जीतव्यवहार से प्रमाणयुक्त है।) 678. जो आचार्य आगम, श्रुत, आज्ञा और धारणा व्यवहार से रहित होता है, वह वृत्तअनुवृत्तप्रमाण से जीत व्यवहार द्वारा व्यवहार करता है। 679, 680. अमुक व्यक्ति के द्वारा अमुक प्रायश्चित्तार्ह कार्य करने पर अमुक आचार्य ने अमुक प्रायश्चित्त का प्रयोग किया, वह वृत्त है। दूसरे अमुक व्यक्ति के द्वारा वैसा ही कार्य करने पर अमुक आचार्य ने उसी व्यवहार का प्रयोग किया, यह अनुवृत्त है। इस वृत्तानुवृत्त जीत व्यवहार का आश्रय लेता हुआ जो यथोक्त व्यवहार का प्रयोग करता है, उसे धीर पुरुषों ने जीत व्यवहार कहा है। 681. धीर पुरुषों द्वारा प्रज्ञप्त तथा श्रुतज्ञानी द्वारा प्रशंसनीय यह पांचवां जीतव्यवहार है। प्रियधर्मा तथा पापभीरु पुरुषों द्वारा यह आचीर्ण है। 682. जैसे काल आदि का प्रतिक्रमण न करने पर, मुखवस्त्रिका के इधर-उधर हो जाने पर, पानक का प्रत्याख्यान न करने पर निर्विगय प्रायश्चित्त होता है, यह जीत व्यवहार है। 683. अनंतकाय वर्जित एकेन्द्रिय प्राणियों (पृथ्वी, अप्, तेजस्, वायु, प्रत्येक वनस्पति) के घट्टन में निर्विगय, अनागाढ़ परिताप देने में पुरिमार्ध, आगाढ़ परिताप देने में एकाशन तथा उनका अपद्रावण करने में आयम्बिल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 684. विकलेन्द्रिय एवं अनंतकाय जीवों के घट्टन में पुरिमार्ध, अनागाढ़ परिताप देने में एकासन, आगाढ़ परिताप देने में आयम्बिल तथा अपद्रावण में उपवास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 685. पञ्चेन्द्रिय जीवों के घट्टन में एकासन, अनागाढ़ परिताप देने में आयम्बिल, आगाढ़ परिताप देने में उपवास तथा अपद्रावण में पंचकल्याणक प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है।