________________ 338 जीतकल्प सभाष्य धरण-धारण अर्थ में है, उन अर्थपदों को आत्मा के साथ एकीभाव से धारण करना संधारणा है। सम्यक् प्रकार से प्रकर्ष रूप में अर्थ का अवधारण कर व्यवहार का प्रयोग करना संप्रधारणा है। 659. धारणा व्यवहार का प्रयोग कैसे पुरुष के प्रति करना चाहिए। जिस प्रकार के गुण से युक्त व्यक्ति के प्रति यह प्रयोग किया जाता है, उसे तुम सुनो। 660. जो पुरुष प्रवचन'-यशस्वी, अनुग्रहविशारद, तपस्वी, सुश्रुतबहुश्रुत तथा जिसकी वाणी विनय आदि गुणों के परिपाक से विशुद्ध हो, ऐसे गुणों से युक्त व्यक्ति के प्रति धारणा व्यवहार का प्रयोग किया जाता है। 661. इस प्रकार के गुणों से युक्त व्यक्ति यदि किञ्चित् स्खलना करते हैं तो धीरपुरुष प्रथम तीन व्यवहारों के न होने पर सूत्र के अर्थपदों को धारण करते हुए यथार्ह प्रायश्चित्त देते हैं। 662, 663. प्रथम तीन व्यवहारों के अभाव होने पर भी सूत्रार्थ को धारण करके, देश और काल की अपेक्षा से विमर्श करके तथा पुरुष के अपराध पर सभी अपेक्षाओं से विचार करके जिसके लिए जो योग्य है, वह प्रायश्चित्त उसे देते हैं। वे किस आधार पर प्रायश्चित्त देते हैं, उसे तुम सुनो। 664. जिस आचार्य या मुनि ने आलीन, प्रलीन, यतनाशील और दान्त धीरपुरुषों से अनुयोग-विधि से सूत्रार्थ को धारण किया है, वह यह प्रायश्चित्त देता है। 665-67. ज्ञान आदि में सम्पूर्ण रूप से लीन आलीन कहलाता है। प्रत्येक पद में लीन होने वाला प्रलीन होता है अथवा जिसका क्रोध आदि नष्ट हो गया हो, वह प्रलीन कहलाता है। यतनायुक्त-सूत्र के अनुसार प्रयत्न करने वाला, पापों से उपरत अथवा इंद्रिय और नोइंद्रिय का दमन करने वाला दान्त होता है। इस प्रकार के गुणों से युक्त अर्थ को धारण करने वाले जो पुरुष होते हैं, वे धारणाकुशल आचार्य धारणा व्यवहार का प्रयोग करने के योग्य होते हैं। 668-70. अथवा जिस आचार्य ने अतीत में किसी दूसरे को शोधि करते हुए देखा, उसने उसकी धारणा कर ली। वैसा ही कारण उत्पन्न होने पर उसको यदि वह वैसे ही द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में वैसा ही प्रायश्चित्त नहीं देता तो वह आराधक नहीं होता। उसी प्रकार के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में उस दोषयुक्त मुनि को वैसा ही प्रायश्चित्त देता है तो वह आराधक होता है। 1. यहां प्रवचन का अर्थ द्वादशांगी तथा संघ दोनों है। 1. व्यभा 4508 मटी. प.८९; प्रवचनं द्वादशांगं श्रमणसंघो वा। 2. जो दिए जाने वाले प्रायश्चित्त को अनुग्रह के रूप में स्वीकार करता है, वह अनुग्रहविशारद कहलाता है। १.व्यभा 4508 मटी प.८९; यो दीयमानं प्रायश्चित्तं दीयमानव्यवहारं त्वनुग्रहं मन्यते सोऽनुग्रहविशारदः। 3. आचार्य मलयगिरि ने व्यवहारभाष्य की टीका में सुश्रुतबहुश्रुत की द्विविध व्याख्या की है-१. बहुत श्रुत को सुनकर भी उसको विस्मृत नहीं करने वाला 2. बहुश्रुत होने पर भी प्रायश्चित्तकर्ता आचार्य दूसरे के उपदेश के अनुसार प्रवृत्ति करता है, वह मार्गानुसारी श्रुत से युक्त होने के कारण सुश्रुतबहुश्रुत होता है। १.व्यभा 4508 मटी प.८९; यस्य बह्वपि श्रुतं न विस्मृतिपथमुपयाति स श्रुतबहुश्रुतः। अथवा बहुश्रुतोऽपि सन् यस्तस्योपदेशेन वर्तते स मार्गानुसारि श्रुतत्वात् सुश्रुतबहुश्रुतः।