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________________ अनुवाद-जी-३५ 399 1219, 1220. स्थापनाभक्त दो प्रकार का होता है। -इत्वरिक स्थापित तथा चिर स्थापित / इत्वरिक स्थापित लेने पर पणग (पांच दिन रात) तथा चिरस्थापित लेने पर लघुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। पणग प्रायश्चित्त आने पर निर्विकृति (निर्विगय) तथा लघुमास प्रायश्चित्त में पुरिमार्ध तप की प्राप्ति होती है। अब मैं इत्वरिक और चिरस्थापित के लक्षण संक्षेप में कहूंगा। 1221-23. पंक्ति में स्थित घरों में भिक्षा के लिए घूमते हुए कोई संघाटक दो घरों में उपयोगपूर्वक भिक्षा ग्रहण करता है। दूसरा साधु श्वान आदि के लिए देय में उपयोग रखता हुआ तीसरे घर से भिक्षा ग्रहण करता है। इससे आगे चौथे घर में उत्क्षिप्त भिक्षा इत्वरिक स्थापित है। वह देशोनपूर्वकोटि तक स्थापित हो सकती है। इस प्रकार स्थापित दोष कहा गया, अब मैं प्राभतिका दोष को कहंगा। 1224. प्राभृतिका दोष दो प्रकार का जानना चाहिए -सूक्ष्म और बादर। सूक्ष्म और बादर प्राभृतिका भी दो-दो प्रकार की होती है-अवष्वष्कण और उत्प्वष्कण। 1225. सूक्ष्म प्राभृतिका से युक्त आहार लेने पर लघुपणग, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त निर्विगय तथा बादर प्राभृतिका में चतुर्गुरु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त उपवास है। 1226, 1227. सूक्ष्म प्राभृतिका का स्वरूप इस प्रकार है-जैसे कोई सूत कातती हुई स्त्री को उसका बालक कहे कि मां! मुझे भोजन दो। उस समय वह कहे-'वत्स! अभी मैं सूत कात रही हूं। जब मैं उलूंगी, तब तुम्हें भोजन दूंगी।' यदि इस बात को साधु सुन ले तो वह वहां न जाए क्योंकि उसके जाने से आरंभ-हिंसा संभव है। १.जो आहार साधु के उद्देश्य से स्व-स्थान या परस्थान में स्थापित है, वह स्थापना दोष युक्त होता है। स्थापना दोष के विस्तार हेतु देखें पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ. 71, 72 / १.व्यभा 1520 मटी प. 35; स्थापितं यत् संयतार्थं स्वस्थाने परस्थाने वा स्थापितम्। २.पिण्डनियुक्ति में स्थापित दोष के दो भेद हैं -स्वस्थान स्थापित तथा परस्थान स्थापित / इन दोनों के भी दो-दो भेद किए गए हैं -अनन्तर और परम्पर।' १.पिनि 126 / ३.स्थापना दोष का उत्कृष्ट कालमान देशोनपूर्वकोटि है क्योंकि चारित्र ग्रहण करने का कालमान आठ वर्ष कम पूर्वकोटि होता है। इस बात का स्पष्टीकरण करते हुए टीकाकार मलयगिरि कहते हैं कि कोई बालक आठ वर्ष की आयु में साधु बना। उसका आयुष्य पूर्वकोटि प्रमाण था। उसने पूर्वकोटि आयुष्य वाली किसी गृहिणी से घृत की याचना की। उसने कहा-'मैं कुछ समय बाद घृत दूंगी।' मुनि को अन्यत्र घृत की प्राप्ति हो गई। गृहिणी के कहने पर मुनि ने कहा-'अभी प्रयोजन नहीं है, जब आवश्यकता होगी, तब लूंगा।' गृहिणी ने उस घृत को साधु के निमित्त स्थापित कर दिया और उसको तब तक रखा, जब तक कि मुनि दिवंगत नहीं हो गए। साधु के दिवंगत होने पर वह घृत स्थापना दोष से मुक्त हो गया।' १.पिनिमटी प.९०, 91 / ... ४.प्राभूतिका दोष के विस्तार हेतु देखें पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ.७२-७४।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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