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________________ 400 जीतकल्प सभाष्य 1228-30. (साधु के आने पर बालक मां से कहता है कि) तुमने साधु के आने पर आहार देने का कहा था अब साधु आने पर भी तुम क्यों नहीं उठती हो, तुम मुझे आहार देने का परिहार क्यों कर रही हो? साधु के प्रभाव से हमें भी भोजन मिल जाएगा। यह जानकर यदि वह स्त्री सूत कातना छोड़ती है तो यह सूक्ष्म अवष्वष्कण प्राभृतिका दोष है। सूत कातती स्त्री से बालक आहार की मांग करे, उस समय यदि वह कहे कि अभी मैं सूत कात रही हूं, तुम रोओ मत। सूत समाप्त होने पर भी भोजन मांगने पर वह कहती है - 1231, 1232. पुत्र! बार-बार मत मांग। अभी परिपाटी-बारी-बारी से घरों में भिक्षा लेते हुए साधु यहां आएंगे, जब मैं उनके लिए उलूंगी, तभी तुम्हें भोजन दूंगी। यह सुनकर साधु उस आहार का वर्जन कर दे। वह बालक यदि साधु की अंगुलि पकड़कर उन्हें अपने घर ले जाए। साधु पूछे कि तुम मेरी अंगुलि क्यों खींच रहे हो? यह पूछने पर बालक यथार्थ बात बता देता है। यह सुनकर साधु उस घर की भिक्षा का वर्जन करे क्योंकि वहां उत्सर्पण रूप सूक्ष्म प्राभृतिका दोष होता है। 1233. बादर प्राभृतिका भी दो प्रकार की होती है-अवष्वष्कण और अभिष्वष्कण। यहां संघाटक तथा साधुओं के एकत्रित होने का निर्देश है। 1234. साधु समुदाय के जाने का दिन निश्चय होने पर कोई श्रावक संखडि में बनने वाली मिठाई और द्रव-तण्डुल-धोवन आदि साधु को देने के लिए नियतकाल से पूर्व पुत्र-विवाह का कार्यक्रम रखता है, यह अवष्वष्कण रूप बादर प्राभृतिका है। 1235. स्थापित विवाह-भोज में साधु समुदाय का आगमन न होने से विवाह को नियतकाल से आगे करना उत्सर्पण रूप बादर प्राभृतिका है। इस अवष्वष्कण और उत्ष्वष्कण रूप बादर प्राभृतिका को कोई ऋजु व्यक्ति प्रकट कर देता है और कोई कुटिल व्यक्ति प्रच्छन्न रूप से रखता है। 1236. दो कारणों से विवाह आदि के दिनों का उत्ष्वष्कण और अवष्वष्कण होता है-मंगल के प्रयोजन से तथा पुण्य के प्रयोजन से। कारण पूछने पर यदि गृहस्थ यथार्थ बात बता दे तो मुनि उस विवाह आदि में निर्मित आहार का वर्जन करता है। 1237. जो मुनि प्राभृतिका भक्त का उपभोग करके उस स्थान (दोष) का प्रतिक्रमण नहीं करता, वह मुंड वैसे ही व्यर्थ परिभ्रमण करता है, जैसे लुंचित विलुंचित पंख वाला कपोत। 1238. प्राभृतिका दोष का वर्णन कर दिया, अब मैं प्रादुष्करण दोष को कहूंगा। प्रादुः अवयव प्रकाशन के १.पिण्डनियुक्ति में इसी गाथा के उत्तरार्ध को स्पष्ट करते हुए टीकाकार कहते हैं कि ऋजु व्यक्ति के द्वारा प्रकट की गई यथार्थ बात को जन-परम्परा से जानकर मुनि उस आहार को ग्रहण न करे। खोज करने पर भी यदि साधु न जान पाए तो उसे ग्रहण करने में कोई दोष नहीं है क्योंकि साधु के परिणाम शुद्ध हैं। १.पिनिमटी प.९३।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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