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________________ अनुवाद-जी-३५ 401 अर्थ में है, प्रादुष्करण का अर्थ है-अंधकार में प्रकाश करना। 1239, 1240. प्रादुष्करण' दोष दो प्रकार का होता है-प्रकटकरण और प्रकाशकरण। प्रकटकरण में भिक्षा लेने पर लघुमास तथा प्रकाशकरण में आहार लेने पर चतुर्लघु प्रायश्चित्त आता है। लघुमास में पुरिमार्ध तथा चतुर्लघु में आयम्बिल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। प्रादुष्करण दोष वर्णित किया, अब मैं क्रीतकृत दोष को कहूंगा। 1241. क्रीतकृत' दोष भी दो प्रकार का है-द्रव्य और भाव। ये दोनों भी दो-दो प्रकार के हैं -आत्मक्रीत और परक्रीत। अब मैं इनके प्रायश्चित्तों को कहूंगा। 1242, 1243. द्रव्यआत्मक्रीत और द्रव्यपरक्रीत ग्रहण करने पर दोनों का चतुर्लघु प्रायश्चित्त जानना चाहिए। इनका तप रूप प्रायश्चित्त-दान आयम्बिल होता है। भावआत्मक्रीत और भावपरक्रीत के प्रायश्चित्त को मैं अब कहूंगा। 1244. भावआत्मक्रीत का भी चतुर्लघु प्रायश्चित्त जानना चाहिए, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल है। भावपरक्रीत लेने पर लघुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त-दान हैपुरिमार्ध। क्रीतकृत दोष वर्णित कर दिया, अब मैं प्रामित्य दोष को कहूंगा। 1245, 1246. प्रामित्य दोष भी संक्षेप में दो प्रकार का है-लौकिक और लोकोत्तर। लौकिक प्रामित्य दोष में चतुर्लघु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त-दान आयम्बिल होता है। लोकोत्तर में लघुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है, जिसमें पुरिमार्ध तप की प्राप्ति होती है। प्रामित्य दोष का कथन कर दिया, अब मैं परिवर्तित दोष को कहूंगा। 1247, 1248. परिवर्तित दोष भी संक्षेप में दो प्रकार का है-लौकिक और लोकोत्तर। लौकिक परिवर्तित दोष में चतुर्लघु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त-दान आयम्बिल होता है। लोकोत्तर में लघुमास, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त पुरिमार्ध है। परिवर्तित दोष कह दिया, अब मैं अभिहृत द्वार को कहूंगा। 1. प्रादुष्करण दोष के विस्तार हेतु देखें पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ.७४,७५ तथा पिनि गा.१३७-१३८/६ तक की गाथाओं का अनुवाद। 2. क्रीतकृत दोष के विस्तार हेतु देखें पिनि 139-143/3 तक की गाथाओं का अनुवाद तथा पिण्डनियुक्ति की . भूमिका पृ.७५-७७। 3. प्रामित्य दोष के विस्तार हेतु देखें पिनि 144-46 तक की गाथाओं का अनुवाद तथा पिण्डनियुक्ति की भूमिका ' पृ.७७, 78 / 4. परिवर्तित दोष के विस्तार हेतु देखें पिनि 147-50 तक की गाथाओं का अनुवाद तथा पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ. 78 / 5. अभ्याहत दोष के विस्तार हेतु देखें पिनि 151-61 तक की गाथाओं का अनुवाद तथा पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ. 78-81 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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