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________________ 402 जीतकल्प सभाष्य 1249. अभिहत दोष दो प्रकार का होता है-आचीर्ण और अनाचीर्ण। आचीर्ण के दो भेद हैं -निशीथ और नोनिशीथ। 1250. निशीथ को प्रच्छन्न तथा नोनिशीथ को प्रकट कहते हैं। इन दोनों के दो-दो भेद हैं -स्वग्राम और परग्राम। 1251. स्वग्राम से आहत दो प्रकार का होता है-आचीर्ण और अनाचीर्ण / अनाचीर्ण में लघुमास, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त पुरिमार्ध होता है। 1252, 1253. परग्राम आहत दो प्रकार का होता है-स्वदेश और परदेश। इनके भी दो-दो प्रकार हैंजलपथ, स्थलपथ। ये दोनों पुनः दो भागों में विभक्त हैं-सप्रत्यपाय और निष्प्रत्यपाय। सप्रत्यपाय पथ में संयमविराधना और आत्मविराधना होती है। 1254, 1255. प्रत्यपाय सहित परदेश आहत आहार लेने पर चतुर्गुरु तथा निष्प्रत्यपाय में चतुर्लघु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त-दान क्रमशः उपवास और आयम्बिल जानना चाहिए। इसी प्रकार स्वदेश अभ्याहृत में जानना चाहिए। 1256, 1257. उद्भिन्न दोष दो प्रकार का होता है-पिहितोद्भिन्न और कपाटोद्भिन्न। पिहितोद्भिन्न दो प्रकार का होता है-प्रासुक और अप्रासुक। प्रासुक पिहित-गोबर अथवा कपड़े से पिहित को खोलने . 1. गृहस्थ यदि तीन घरों की दूरी से सम्मुख जाकर भिक्षा देता है तो उसमें उपयोग संभव है अत: वह आचीर्ण है। तीन घरों के आगे से लाने में उपयोग संभव नहीं रहता अत: वह अनाचीर्ण है। इसमें भी जो अभिहत भिक्षा साधु को ज्ञात न हो वह निशीथ अनाचीर्ण तथा जो साधु को ज्ञात हो, वह नोनिशीथ अनाचीर्ण अभ्याहत है। 1. व्यभा 857 मटी प. 111 / 2. जिस गांव में साधु रहते हैं, वह स्वग्राम तथा शेष परग्राम कहलाते हैं। 3. नियुक्तिकार ने जलपथ और स्थलपथ से होने वाली आत्मविराधना का वर्णन इस प्रकार किया है-गहरे पानी के कारण निमज्जन हो सकता है। जलचर विशेष की पकड़ हो सकती है। कीचड़, मगरमच्छ, कच्छप आदि के कारण पैर फस सकते हैं। स्थलमार्ग के दोष इस प्रकार हैं-कंटक, सर्प,चोर, श्वापद आदि के दोष। 1. पिनि 154 / 4. उद्भिन्न दोष के विस्तार हेतु देखें पिनि 162-64 तक की गाथाओं का अनुवाद तथा पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ. 81, 82 / 5. कुतुप-तैल आदि भरने का चर्ममय पात्र अथवा घट आदि। उसके मुख को खोलकर साधु को दिया जाने वाला आहार पिहितोद्भिन्न कहलाता है। 6. टीकाकार कपाट के उद्घाटन के संबंध में व्याख्या करते हुए कहते हैं कि वहां जल से भरा मटका आदि रखा हो तो उसके भेदन होने पर पार्श्व स्थित चूल्हे में भी वह पानी प्रवेश कर सकता है, जिससे अग्निकाय की विराधना संभव है। अग्निकाय की विराधना होने पर वायुकाय की विराधना अवश्यंभावी है। चींटी आदि के बिल में पानी प्रवेश करने से त्रसकाय की विराधना भी संभव है। कपाटोद्भिन्न आहार लेने में क्रय, विक्रय, अधिकरण आदि दोषों की संभावना भी रहती है। १.पिनिमटी प. 107 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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