________________ अनुवाद-जी-३५ 403 पर यदि उसमें घी या तैल फैल जाता है तो लघुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त पुरिमार्ध होता है। 1258. अप्रासुक पिहित -पृथ्वीकाय या सचित्त वस्तु से लिप्त पिहित को खोलकर दिया जाए तो उसमें षट्काय-विराधना की संभावना रहती है। 1259-61. सचित्त पृथ्वी से लिप्त मिट्टी का ढेला, शिला आदि को पानी से आर्द्र करके पिहित किया जाए तो वह तत्काल लिप्त सचित्त पृथ्वी लेप जल के कारण चिरकाल तक सचित्त रहता है। पृथ्वीकाय को आर्द्र करने पर अप्काय की हिंसा होती है, लाख से मुद्रित को तपाने में भी तेजस्काय और वायुकाय की विराधना होती है। पणग, बीज आदि वनस्पति तथा कुंथु, पिपीलिका आदि त्रस जीवों की विराधना भी संभव है। लेप को खोलने में भी ये ही दोष होते हैं। 1262. साधु के निमित्त कुतुप आदि का मुख उद्भिन्न करने पर गृहस्वामी याचक को अथवा पुत्र आदि को तैल, लवण, घी और गुड़ आदि देता है। उद्घाटित करने पर वह अवश्य विक्रय करता है और दूसरे उसे खरीदते हैं। 1263. दान, क्रय या विक्रय में अधिकरण-कलह आदि संभव है तथा अयतना से मुख उद्घाटित करने से वहां चींटी, मूषक आदि जीव भी गिर सकते हैं। 1264. जिस प्रकार पूर्वलिप्त कुंभ आदि को उद्भिन्न करने पर पृथ्वीकाय आदि पटकाय जीवों की विराधना होती है, वैसे ही लिंपन आदि करने पर भी दोष उत्पन्न होते हैं, यह पिहित उद्भिन्न कहा गया 1265. उद्भिन्न दोष में सामान्यतः चतुर्लघु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल होता है। प्रायश्चित्त का विस्तार से निर्धारण काय आदि की हिंसा के आधार पर होता है। 1266. इसी प्रकार कपाट आदि को खोलने में भी षट्काय वध को जानना चाहिए। खुले हुए कपाट को बंद करने पर विशेष रूप से यंत्र आदि पीलने में होने वाले दोष जानने चाहिए। 1267. कपाट खोलने से छिपकली आदि की विराधना होती है। आवर्तन-पीठिका के ऊपर-नीचे होने से कुंथु आदि जीवों की विराधना संभव है। कपाट के पीछे जाने पर अंदर स्थित बालक आदि को चोट लगने की संभावना रहती है। 1268. कपाट आदि खोलने का सामान्य प्रायश्चित्त चतुर्लघु है, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल होता है। विभागतः प्रायश्चित्त षट्काय आदि की हिंसा के आधार पर निश्चित होता है। 1269. उद्भिन्न दोष का वर्णन कर दिया, अब मैं मालापहृत दोष के बारे में कहूंगा। मालापहत दोष' तीन प्रकार का होता है-ऊर्ध्व, अधः और तिर्यक् / 1. मालापहत दोष के विस्तार हेतु देखें पिनि 165-71 तक की गाथाओं का अनुवाद तथा पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ. 82, 83 /