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________________ 404 जीतकल्प सभाष्य 1270. दुमंजिला मकान ऊर्ध्व मालापहत है। ऊंची कोठी (धान्य आदि की) अधः मालापहृत तथा अर्ध माले पर हाथ ऊंचा करके वस्तु को ग्रहण किया जाए, वह तिर्यक् मालापहृत है। 1271. तीनों प्रकार के मालापहृत दो प्रकार के हैं-जघन्य और उत्कृष्ट। पैरों के अग्रभाग पर ऊर्ध्वस्थित होकर ऊपर से दी जाने वाली भिक्षा जघन्य मालापहृत है तथा निःसरणी आदि पर चढ़कर ऊपर से उतारकर देना उत्कृष्ट मालापहत है। 1272. उत्कृष्ट मालापहृत का प्रायश्चित्त चतुर्लघु जानना चाहिए, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त-दान आयम्बिल होता है। अब मैं जघन्य मालापहृत के बारे में कहूंगा। 1273. जघन्य मालापहत में लघुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त पुरिमार्ध होता है। मालापहृत दोष का वर्णन कर दिया, अब मैं आच्छेद्य दोष के बारे में कहूंगा। 1274. आच्छेद्य दोष तीन प्रकार का होता है-१. प्रभुविषयक 2. स्वामिविषयक' 3. स्तेनविषयको प्रत्येक का प्रायश्चित्त चतुर्लघु है, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल है। .. 1275. अनिसृष्ट'-अननुज्ञात दोष तीन प्रकार का होता है–१. साधारण 2. चोल्लक 3. और जड्ड। इन तीनों प्रकार के अनिसृष्ट दोष में चतुर्लघु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल होता है। 1276. साधारण अनिसृष्ट दाता आदि के आधार पर अनेक प्रकार का होता है -क्षीर, दुकान, संखडिभोज। यहां समान वय वाले लोगों के मंडलि-भोज का दृष्टान्त है। 1277. चोल्लक (आहार) भी संक्षेप में दो प्रकार का होता है-छिन्न और अच्छिन्न / जब स्वामी अपने 1. आच्छेद्य दोष के विस्तार हेतु देखें पिनि 172-177/2 तक की गाथाओं का अनुवाद तथा पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ.८४, 85 / 2. अपने घर का नायक प्रभु कहलाता है। 3. ग्राम का नायक स्वामी कहलाता है। 4. टीकाकार ने इस गाथा की विस्तृत एवं स्पष्ट व्याख्या की है। उनके अनुसार स्तेनाच्छेद्य का प्रसंग सार्थ में जाते हुए मुनियों के समक्ष उपस्थित होता है। उस समय गरीब सार्थिकों से बलात् लेकर चोर उनको दे तो उसे साधु ग्रहण न करे। यदि वे सार्थ चोरों के द्वारा बलात् लेने पर ऐसा कहते हैं कि हमारे सामने घृत-सक्तु का दृष्टान्त उपस्थित हुआ है अर्थात् सक्तु के मध्य डाला हुआ घी विशिष्ट संयोग के लिए होता है अत: चोर को अवश्य हमारा आहार ग्रहण करना चाहिए। यदि चोर साधु को देंगे तो हमें महान् समाधि होगी। इस प्रकार सार्थिक के द्वारा अनुज्ञात देय को साधु ग्रहण कर सकते हैं। फिर चोरों के चले जाने पर साधु वह द्रव्य सार्थिकों को देते हुए कहे कि उस समय हमने चोर के भय से वह आहार ले लिया अब वे गए अत: यह द्रव्य तुम ग्रहण कर लो। इस प्रकार वे ग्रहण करने की अनुज्ञा दें तो साधु के लिए वह आहार कल्पनीय है। 1. पिनिमटी प. 113 / 5. अनिसृष्ट दोष के विस्तार हेतु देखें पिनि 178-85 तक की गाथाओं का अनुवाद तथा पिण्डनियुक्ति भूमिका पृ. 85-87 / 6. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 39 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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