________________ अनुवाद-जी-३५ 405 कर्मकरों को अलग- अलग भोजन देता है, उसे छिन्न' चोल्लक जानना चाहिए। 1278. अच्छिन्न भोजन भी दो प्रकार का होता है-अनुज्ञात और अननुज्ञात। जो भोजन लाकर कर्मकरों को समर्पित कर दिया जाता है और स्वामी उसको साधु को देने की आज्ञा दे देता है, वह अनुज्ञात अच्छिन्न चोल्लक कहलाता है। 1279. खाने के बाद जो शेष बचता है, वह यदि लिया जाए तो वह अनिसृष्ट कहलाता है। छिन्न भोजन अनुज्ञात होने के कारण साधु के लिए कल्प्य होता है। 1280. अनिसृष्ट आहार यदि स्वामी के द्वारा अनुज्ञात है तो स्वामी के द्वारा नहीं देखने पर भी वह कल्प्य है। यह चोल्लक अनिसृष्ट है। अब मैं जड्ड अनिसृष्ट के बारे में कहूंगा। 1281. राजकुल से हाथी के लिए आनीत राजपिंड आहार साधु के लिए अकल्प्य है। इससे साधु को अंतराय, अदत्त-ग्रहण आदि दोष लगते हैं। 1282. हाथी भी (प्रतिदिन महावत को देते देखकर) प्रद्वेष में आकर साधु को सूंड से गिरा सकता है तथा साधु के उपाश्रय आदि को तोड़ सकता है। महावत के पास हाथी के द्वारा अदृष्ट आहार साधु के लिए कल्पनीय है। 1283. अनिसृष्ट द्वार का कथन कर दिया, अब मैं अध्यवतर दोष के बारे में कहूंगा। घर में स्वयं के लिए निष्पन्न आहार में साधु के निमित्त अधिक डालकर भोजन पकाना अध्यवतर दोष है। 1284. तण्डुल आदि को साधु के निमित्त अधिक डालना अध्यवतर दोष है, वह तीन प्रकार का होता 1. जिसके निमित्त से छिन्न किया गया है, यदि वह दाता स्वयं उस छिन्न चुल्लक को देना चाहे तो वह कल्पनीय ... १.पिनिमटी प. 114 / 2. जब स्वामी सब हालिकों के लिए एक ही बर्तन में भोजन भेजता है तो वह अच्छिन्न कहलाता है। इसी प्रकार उद्यापनिका आदि में भी छिन्न-अच्छिन्न चुल्लक समझना चाहिए। अच्छिन्न में यदि सभी स्वामी अनुज्ञा दें, तब . वह वस्तु साधु को ग्रहण करना कल्पनीय है। १.पिनिमटी प. 114 / 3. इस गाथा की व्याख्या करते हुए टीकाकार कहते हैं कि राजा के द्वारा अननुज्ञात लेने पर कभी वह रुष्ट होकर महावत को नौकरी से निकाल सकता है। साधु के कारण उसकी आजीविका का विच्छेद होता है अतः साधु को अंतराय का दोष लगता है। १.पिनिमटी प. 115 / 4. पिण्डनियुक्ति में मिश्रजात और अध्यवपूरक का भेद स्पष्ट किया गया है। मिश्रजात में यावदर्थिक आदि के लिए प्रारंभ में ही अधिक पकाया जाता है और अध्यवपूरक में बाद में तंडुल आदि का अधिक परिमाण किया जाता है। १.पिनिमटी प. 115, 116 / 5. अध्यवतर दोष के विस्तार हेतु देखें पिनि 186-188/1 गाथाओं का अनुवाद तथा पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ.८७।