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________________ 406 जीतकल्प सभाष्य है-१.यावदर्थिक-अध्यवतर 2. पाषंडि-अध्यवतर 3. साधु-अध्यवतर। 1285. यावदर्थिक अध्यवतर आहार ग्रहण करने पर लघुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त पुरिमार्थ होता है। पाषंडी-अन्य दर्शनी और साधु से सम्बन्धित अध्यवतर आहार ग्रहण करने पर गुरुमास (एकासन) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1286. यह अध्यवतर का वर्णन है। ये उद्गम के सोलह दोष हैं / भिक्षा से सम्बन्धित नौ कोटियां होती हैं। कोटि किसे कहते हैं? 1287. जिससे गच्छ में बहुत सारे दोष एकत्रित हो जाते हैं, उसे कोटि कहा जाता है। नव कोटियां इस प्रकार हैं१२८८.१. हनन करना 2. हनन करवाना 3. हनन का अनुमोदन करना 4. पचन 5. पाचन 6. पाचन का अनुमोदन 7. क्रय करना 8. क्रय करवाना तथा 9. क्रीत का अनुमोदन करना -ये नौ कोटियां हैं। 1289. कोटिकरण नव, अठारह, सत्तावीस, चौपन, नब्बे तथा दो सौ सत्तर प्रकार का होता है। 1290. इन नव कोटियों को राग और द्वेष से गुणा करने पर अठारह तथा अज्ञान, मिथ्यात्व और अविरति से गुणा करने पर सत्तावीस भेद होते हैं। 1291. पृथ्वी आदि छह काय-संयम से गुणा करने पर चौपन तथा क्षांति आदि दशविध श्रमणधर्म से गुणा करने पर नब्बे भेद होते हैं। 1292. नब्बे को दर्शन, ज्ञान और चारित्र-इन तीन से गुणा करने पर 270 भेद होते हैं। यह कोटियों का विस्तार है। 1293. संक्षेप में कोटि दो प्रकार की होती है -1. उद्गमकोटि 2. विशोधिकोटि / उद्गमकोटि छह प्रकार की तथा विशोधिकोटि अनेकविध होती है। 1294, 1295. हननत्रिक और पचनत्रिक-ये छह प्रकार की कोटियां उद्गमकोटि कहलाती हैं। अथवा ये छह प्रकार की उद्गमकोटि कहलाती हैं-१.आधाकर्म 2. औद्देशिक के अंतिम तीन भेद, 3. पूति 4. मिश्रजात 5. बादरप्राभृतिका 6. अध्यवपूरक के अंतिम दो भेद-(स्वगृह पाषंडिमिश्र तथा स्वगृहसाधुमिश्र।) 1296. संक्षेप में छह प्रकार की अविशोधिकोटि का वर्णन किया, अब तीन प्रकार की विशोधिकोटि को क्रमशः कहूंगा। 1297. उद्गमदोष रूप अविशोधिकोटिक आहार के अवयव से स्पृष्ट, लेप अथवा अलेप से युक्त पात्र, जो तीन कल्पों से परिमार्जित नहीं है, उसमें आहार लेना पूतिदोष दुष्ट आहार है। इसी प्रकार काञ्जिक, अवश्रावण, चाउलोदक से संस्पृष्ट पात्र या आहार भी पूतिदोष दुष्ट होता है। 1298. जिस प्रकार शुष्क अशुचि से स्पृष्ट होने पर भी लोक में उस भाजन या वस्तु को धोया जाता है, वैसे ही अलेप आधाकर्मिक वल्ल, चणक आदि का स्पर्श होने पर भी पात्र का कल्पत्रय से शोधन करना अनिवार्य है।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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