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________________ अनुवाद-जी-३५ 407 1299. अलेपकृद् आधाकर्मिक वल्ल, चणक आदि के ग्रहण करने पर भी कल्पत्रय के बिना उस पात्र में भोजन कल्पनीय नहीं होता फिर तक्र आदि लेपयुक्त पदार्थ का तो कहना ही क्या? 1300. काजिक आदि का ग्रहण किसलिए किया गया? आचार्य उत्तर देते हैं, उसे तुम सुनो। साधु को ध्यान में रखकर जो निष्पन्न किया जाता है, वह आधाकर्म है। 1301, 1302. आधाकर्म ओदन को जानकर कोई यह कहे कि ओदन साधु के निमित्त बनाए गए हैं, न कि काजी, अवश्रावण-मांड आदि अतः साधु को केवल ओदन का वर्जन करना चाहिए, काञ्जिक आदि का वर्जन करना आवश्यक नहीं है। इसका समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं कि यद्यपि काञ्जिक, अवश्रावण आदि आधाकर्मिक नहीं हैं फिर भी ओदन के निमित्त से काञ्जी आदि बनते हैं अतः ओदन के साथ काजी का भी वर्जन करना चाहिए। 1303. शेष विशोधिकोटि के स्थापना आदि दोष युक्त आहार यदि अजानकारी में ग्रहण कर लिया गया हो तो उतने भक्तपान को अलग करने पर शेष आहार शुद्ध हो जाता है। 1304. इसलिए उस अशन और पान को यथाशक्ति अलग कर देना चाहिए। अब मैं द्रव्य आदि के क्रम से संक्षिप्त में व्याख्या करूंगा। 1305. जिस द्रव्य का परित्याग किया जाता है, वह द्रव्य विवेक है। जिस प्रदेश में परित्याग किया जाता है, वह क्षेत्र विवेक है। दोष से युक्त आहार का तत्काल परित्याग कर देना, जिससे दूसरी भिक्षा उससे मिलकर अशुद्ध न हो, यह काल विवेक है। 1306. अशठ मुनि राग द्वेष रहित होकर दोष युक्त आहार को देखते ही परित्याग कर देता है, यह भावविवेक है। यदि अनलक्षित-जिसे अलग करना कठिन हो अथवा कोई तक्र आदि द्रव पदार्थ का मिश्रण हो तो कणमात्र भी न रहे ऐसा सर्व विवेक-परित्याग करना चाहिए। यदि कुछ सूक्ष्म अवयव लगे रह जाएं तो कल्पत्रय किए बिना भी आहार ग्रहण करने वाला साधु शुद्ध है। 1307. यदि उस द्रव्य के बिना निर्वाह होना संभव न हो तो जितना अशुद्ध है, उतने आहार का परित्याग करना चाहिए। यहां शुष्क और आर्द्र निपात की चतुर्भंगी है। 1308. शुष्क और आर्द्र निपात की चतुर्भंगी इस प्रकार है * शुष्क में शुष्क का निपात। * शुष्क में आर्द्र का निपात। * आर्द्र में शुष्क का निपात। * आर्द्र में आर्द्र का निपात। . १.सदृश वर्ण आदि के कारण जिसको अलग रूप से जानना कठिन हो, वह अनलक्षित कहलाता है।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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