________________ 398 जीतकल्प सभाष्य 1209-11. यदि चुल्ली, स्थाली, बड़ा चम्मच तथा दर्वी आदि आधाकर्म आहार से युक्त हैं तो वहां आधाकर्म दोष होता है। पूतिदोष इस प्रकार होता है-आधाकर्मिक कर्दम से मिश्रित चुल्ली अथवा खंडित चुल्ली का पुनः संस्थापन, स्थाली में किसी अंश को जोड़ना, बड़ी कुड़छी या दर्वी में लकड़ी का आगे से या पीछे से दण्ड का भाग जोड़ना-यह सब उपकरणपूति' है। 1212. उपकरणपूति का वर्णन किया गया, अब मैं भक्तपानपूति कहूंगा। आधाकर्मिक शाक को लवण, हींग से मिश्रित करना भक्तपानपूति' है। संक्रामण-आधाकर्म से संस्पृष्ट थाली आदि में शुद्ध अशन रखना या पकाना, स्फोटन-आधाकर्मिक राई आदि से भोजन को संस्कारित करना तथा हींग आदि का बघार देना-यह सारा भक्तपान विषयक पूति है। 1213. अपने लिए तक्र आदि का पान करने के लिए आधाकर्मिक शाक, लवण तथा हींग आदि को उस तक्र में मिलाना या बघार में अन्य चीज डाल देना भक्तपानपूति है। 1214. जिस स्थाली में पहले आधाकर्म आहार पकाया, उस पात्र को खाली करके उसमें शुद्ध आहार निकाला जाए अथवा रांधा जाए तो वहां भक्तपानपूति होता है। 1215. निर्धूम अंगारों की राख पर बेसन, हींग, जीरा आदि डालकर स्थाली आदि को नीचे मुंह करके उस पर ढ़क दिया जाता है तो उससे निकलने वाले धूम से व्याप्त स्थाली, तक्र आदि भी पूति दोष युक्त हो जाते हैं। 1216. मिश्रजात' तीन प्रकार का है --यावदर्थिक मिश्र, पाषंडिमिश्र तथा साधुमिश्र। इनके प्रायश्चित्तों को मैं आगे कहूंगा। 1217, 1218. प्रथम यावदर्थिक मिश्र लेने पर चतुर्लघु, दूसरे पाषंडिमिश्र तथा तीसरे साधुमिश्र को लेने पर तप और काल से विशिष्ट चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। चतुर्लघु प्रायश्चित्त आने पर आयम्बिल तथा चतुर्गुरु प्रायश्चित्त में उपवास की प्राप्ति होती है। मिश्रजात कहने के बाद अब मैं स्थापनाभक्त को कहूंगा। १.किसी व्यक्ति ने साधु के निमित्त डोय-बड़ा चम्मच या दर्वी बनवाई, वह आधाकर्मिक है। एक नई दर्वी अपने लिए बनवाई, जिसमें आधाकर्मिक दर्वी का कोई अवयव आगे या पीछे के भाग में लगा दिया। उस दर्वी को यदि शुद्ध आहार में डाल दिया जाए तो इस मिश्रण से उपकरणपूति होने के कारण वह आहार कल्पनीय नहीं होता। 1. निभा 808 चू पृ. 64 / 2. गृहस्थ ने साधु के निमित्त शाक आदि बनाया, नमक और हींग को पीसा या पकाया। इन आधाकर्मी द्रव्यों को अपने लिए पकाए जाने वाले भोजन में थोड़ा डाल दिया, यह आहारपूति है। 3. नियुक्तिकार के अनुसार मिश्रजात आहार सहस्रान्तरित अर्थात् जिसने मिश्रजात पकाया उसने दूसरे को, दूसरे ने तीसरे को-इस प्रकार हजार व्यक्ति को देने पर भी वह आहार साधु के लिए कल्प्य नहीं होता। मिश्रजात की विस्तृत व्याख्या हेतु देखें पिण्डनियुक्ति की भूमिका पृ. 70, 71 / १.पिनि 120 /