________________ अनुवाद-जी-३५ 435 असंसृष्ट पात्र तथा निरवशेष द्रव्य-इनके परस्पर संयोग से आठ विकल्प होते हैं - 1599. संसृष्ट हाथ एवं पात्र वाले भंगों में आहार लेने पर चतुर्लघु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल प्राप्त होता है तथा सावशेष लिप्त वाले भंगों में आहार लेने पर लघुमास, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त पुरिमार्ध होता है। 1600. लिप्त द्वार का वर्णन पूरा हुआ, अब मैं छर्दित द्वार कहूंगा। छर्दित दोष भी तीन प्रकार का होता है-सचित्त, मिश्र और अचित्त। 1601. छर्दित दोष में चतुर्लघु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल होता है अथवा सचित्त पृथ्वीकाय आदि की हिंसा होने पर प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1602. छर्दन के तीन प्रकार हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र। इनकी तीन चतुर्भगियां होती हैं। इसके सारे विकल्पों में आहार का ग्रहण प्रतिषिद्ध है। यदि इन विकल्पों में ग्रहण किया जाता है तो आज्ञा, अनवस्था, मिथ्यात्व तथा विराधना आदि दोष होते हैं। 1603. उष्ण द्रव्य के छर्दन से दाता जल सकता है। पृथ्वी आदि षड्जीवनिकाय जीवों का दहन हो सकता है। शीत द्रव्य के छर्दन से पृथ्वी आदि के जीवों की विराधना होती है। इस विषय में मधु-बिन्दु का उदाहरण ज्ञातव्य है। : 1604. छर्दित दोष का वर्णन कर दिया। ग्रहणैषणा के दोषों का वर्णन सम्पन्न हो गया। अब गृहीत आहार की विधिपूर्वक ग्रासैषणा (परिभोगैषणा) का प्रसंग है। / 1.. संसृष्ट हाथ, संसृष्ट पात्र तथा सावशेष द्रव्य। . . संसृष्ट हाथ, संसृष्ट पात्र तथा निरवशेष द्रव्य। * संसृष्ट हाथ, असंसृष्ट पात्र तथा सावशेष द्रव्य / * संसृष्ट हाथ, असंसृष्ट पात्र तथा निरवशेष द्रव्य। * असंसृष्ट हाथ, संसृष्ट पात्र तथा सावशेष द्रव्य। * असंसृष्ट हाथ, संसृष्ट पात्र तथा निरवशेष द्रव्य। * असंसृष्ट हाथ, असंसृष्ट पात्र तथा सावशेष द्रव्य। * असंसृष्ट हाथ, असंसृष्ट पात्र तथा निरवशेष द्रव्य। ___ इन आठ विकल्पों में सावशेष भंग वाले विकल्पों में आहार ग्रहण करना कल्प्य है, शेष निरवशेष वाले भंगों में भजना है। हाथ और पात्र के संसृष्ट होने पर तथा भिक्षा के पश्चात् द्रव्य सावशेष रहता है तो दात्री उस पात्र का प्रक्षालन नहीं करती अतः विषम भंगों में पश्चात्कर्म की संभावना नहीं रहती लेकिन यदि द्रव्य निरवशेष रूप से साधु को दे दिया जाए तो दान के पश्चात् नियमतः उस बर्तन का. तथा हाथ और पात्र का प्रक्षालन किया जाता है अतः द्वितीय आदि सम भंगों में पश्चात्कर्म की संभावना से आहार लेना कल्पनीय नहीं है।' १.पिनिमटी प. 169 / २.कथा के विस्तार हेतु देखें परि.२, कथा सं.५२।