________________ 436 जीतकल्प सभाष्य 1605. ग्रासैषणा चार प्रकार की है-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। इन सबका वर्णन करके अब मैं संक्षेप में इनके उपनय (दृष्टान्त) का कथन करूंगा। 1606. मत्स्य स्थानीय साधु, मांस स्थानीय भक्तपान, मच्छीमार स्थानीय राग-द्वेष आदि का समूह जानना चाहिए। 1607. जिस प्रकार वह मत्स्य उपाय के द्वारा भी नहीं छला गया, वैसे ही साधु भी भोजन के समय स्वयं के द्वारा स्वयं को अनुशासित करे। 1608. हे जीव! तुम एषणा के बयालीस दोषों से विषम आहार-पानी के ग्रहण में नहीं ठगे गए अतः अब उनका उपभोग करते हुए तुम राग-द्वेष से मत ठगे जाना। 1609. भाव ग्रासैषणा दो प्रकार की होती है-प्रशस्त और अप्रशस्त / अप्रशस्त के पांच प्रकार हैं, इन दोषों से रहित प्रशस्त भावग्रासैषणा है। 1610. संयोजना, अतिप्रमाण में भोजन, इंगालदोष, धूमदोष तथा कारण दोष-ये पांच ग्रासैषणा के अप्रशस्त भेद हैं तथा इसके विपरीत संयोजना आदि नहीं करना प्रशस्त ग्रासैषणा है। 1611. संयोजना के दो प्रकार हैं-द्रव्य संयोजना और भाव संयोजना। द्रव्य संयोजना के पुनः दो प्रकार हैं-बाह्य और आंतरिक। भिक्षा ग्रहण करते समय अनुकूल द्रव्यों का संयोग करना बाह्य संयोजना है। 1612. रस पैदा करने के लिए दूध, दही, कट्टर-तीमन मिश्रित घी का बड़ा आदि प्राप्त होने पर भिक्षा के लिए घूमते हुए गुड़, चावल, कूर तथा घी आदि मांगकर उनका संयोग करना बाह्य संयोजना है। अब मैं अंतः संयोजना के बारे में कहूंगा। 1613. उपाश्रय में की जाने वाली अंतः संयोजना तीन प्रकार की होती है-पात्र में, कवल में तथा मुंह में। जो-जो रस के उपकारी द्रव्य हैं, उनको पात्र में मिलाना पात्र संयोजना है। " 1614. वालुंक-पक्वान्न विशेष, बड़ा तथा बैंगण आदि को कवल के साथ मिलाना कवल संयोजना है। मुंह में कवल डालकर बाद में सालणक-कढ़ी के समान एक प्रकार का द्रव्य आदि डालना मुख संयोजना है। 1615. द्रव्यों की संयोजना करना द्रव्य संयोजना है। रस के लिए जो द्रव्यों की संयोजना करता है, वह भाव संयोजना है। 1616. राग-द्वेष से द्रव्यों की संयोजना करता हुआ जीव राग-द्वेष के कारण अपनी आत्मा के साथ कर्मों का संयोग करता है। 1617. कर्म से जीव भव-परम्परा को संयोजित करता है तथा भव से जीव दुःख से स्वयं को संयोजित करता है, यह भाव संयोजना है। 1. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.५३।