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________________ अनुवाद-जी-३५ 437 1618. विशेष रस (स्वाद) को बढ़ाने के लिए संयोग का प्रतिषेध किया गया है। ग्लान के लिए संयोग किया जा सकता है तथा जिसको आहार अरुचिकर लगता हो अथवा जो सुखोचित-राजपुत्र आदि रहा हो अथवा जो अभावित -अपरिणत शैक्ष आदि हो-उनके लिए संयोजना करना विहित है। 1619. यदि खाने के बाद भी द्रव्य शेष नहीं हुआ हो, घी आदि पर्याप्त मात्रा में बचा हो तो उसकी सत्तु आदि के साथ संयोजना की जा सकती है ताकि उसे परिष्ठापित न करना पड़े। 1620. आंतरिक और बाह्य संयोजना करने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। दूसरे विकल्प में बाह्य संयोजना में चतुर्लघु और आंतरिक संयोजना में चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। चतुर्गुरु का तप रूप प्रायश्चित्त उपवास तथा चतुर्लघु का आयम्बिल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 1621. संयोजना का वर्णन सम्पन्न हुआ, अब मैं आहार के प्रमाण के बारे में कहूंगा। साधु को जीवन चलाने जितना ही भोजन करना चाहिए। 1622. पुरुष के लिए बत्तीस कवल प्रमाण आहार कुक्षिपूरक माना गया है तथा महिलाओं के लिए अट्ठावीस कवल पर्याप्त माने जाते हैं। 1623. नपुंसक का आहार चौबीस कवल प्रमाण होता है। स्त्री और पुरुष दो की ही दीक्षा होती है अतः नपुंसक का कवल-प्रमाण यहां गृहीत नहीं है। 1624. इस प्रमाण से किंचित्मात्रा में अर्थात् एक कवल, आधा कवल न्यून अथवा आधा आहार अथवा आधे से भी आधा आहार लिया जाता है, उसे तीर्थंकरों ने संयमयात्रा के लिए पर्याप्त कहा है, यही न्यून आहार है। 1. बचे हुए घी को बिना मिश्री या खांड के केवल रोटी के साथ खाना संभव नहीं है क्योंकि भोजन करने के बाद सबको तृप्ति हो जाती है। उसका परिष्ठापन भी उचित नहीं होता क्योंकि परिष्ठापन से उस चिकनाई पर अनेक कीटिकाओं की हिंसा संभव है अत: यह संयोजना का अपवाद है कि बचे हुए घी में खांड आदि द्रव्य को मिलाना विहित है। 1. पिनिमटी प 173 / 2. एक कवल का प्रमाण मुर्गी के अंडे जितना माना गया है। कुक्कुटी दो प्रकार की होती है-द्रव्य कुक्कुटी और भाव कुक्कुटी / द्रव्य कुक्कुटी के दो प्रकार हैं-उदर कुक्कुटी और गल कुक्कुटी। जितने आहार से साधु का उदर न भूखा रहे और न अधिक भरे, वह आहार उदर कुक्कुटी है। मुख को विकृत किए बिना गले के अंदर जो कवल . समा सके, वह गल कुक्कुटी है। टीकाकार दूसरे नय से व्याख्या करते हुए कहते हैं कि शरीर ही कुक्कुटी है और मुख अण्डक है। जिस कवल से आंख, भ्रू आदि विकृत न हों, वह प्रमाण है अथवा कुक्कुटी का अर्थ हैपक्षिणी, उसके अंडे जितना कवल प्रमाण है। जिस आहार से धृति बनी रहे तथा ज्ञान, दर्शन और चारित्र की वृद्धि हो, उतना आहार करना भाव कुक्कुटी है। मूलाचार की टीका में एक हजार चावल जितने को एक कवल का प्रमाण माना है। * १.पिनिमटी प. 173 / 2. मूला 350 टी प. 286 ; सहस्रतंदुलमात्रः कवल आगमे पठितः।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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