________________ 438 जीतकल्प सभाष्य 1625. जो मुनि प्रकाम, निकाम और प्रणीत भक्त-पान का उपभोग करता है, अति बहुल मात्रा में अथवा बहुत अधिक बार भोजन करता है, उसे प्रमाणातिक्रान्त दोष जानना चाहिए। . . 1626. बत्तीस कवल से अधिक आहार को प्रकाम आहार कहते हैं। प्रमाणातिरिक्त आहार यदि प्रतिदिन किया जाता है तो वह निकाम तथा जिस आहार से घी आदि टपकता हो, वह प्रणीत आहार है, ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है। 1627. अतिबहुक, अतिबहुशः तथा अतिप्रमाण में किया हुआ भोजन अतिसार पैदा कर सकता है, उससे वमन हो सकता है तथा वह आहार जीर्ण न होने पर व्यक्ति को मार भी सकता है। 1628. अपने आहार की मात्रा से अधिक, दिन में तीन बार अथवा तीन बार से अधिक खाना अतिप्रमाण अथवा प्रमाणातिक्रान्त आहार है। 1629. अथवा अतृप्त रहता हुआ आतुर होकर जो आहार करता है, वह अतिप्रमाण कहलाता है। इसमें अतिसार आदि पूर्वोक्त दोष (गा. 1627) भी होते हैं। 1630. इन दोषों के कारण अतिरिक्त आहार करने पर चतुर्लघु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल होता है। 1631. अतिप्रमाण आहार करने में दोष हैं तो फिर कैसा आहार करना चाहिए? शिष्य के द्वारा ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं कि साधु को जैसा भोजन करना चाहिए, उसको आगे कहा जा रहा है, वह सुनो। 1632. जो मुनि हितकारी', परिमित तथा अल्प-आहार करते हैं, उनकी चिकित्सा वैद्य नहीं करते। वे स्वयं अपने चिकित्सक होते हैं। (अर्थात् उनके रोग होता ही नहीं।) 1633-35. हितकर और अहितकर आहार दो प्रकार का होता है-इहलोक में हितकर तथा परलोक में हितकर। इसकी चतुर्भंगी इस प्रकार है * इहलोक में हितकर, परलोक में नहीं। . * परलोक में हितकर. इहलोक में नहीं। * न परलोक में हितकर, न इहलोक में। * इहलोक में हितकर, परलोक में भी हितकर। प्रथम भंग में जो अविरोधी द्रव्य होते हैं, वे ग्राह्य हैं, जैसे खीर, दधि, गुड़ आदि। इनको अनेषणीय ग्रहण करके राग और द्वेष से भोग करना इहलोक में हितकर है, परलोक के लिए नहीं। 1. हितकर आहार दो प्रकार का होता है -द्रव्यतः तथा भावतः। अविरुद्ध आहार करना द्रव्यतः हितकर है तथा एषणीय आहार करना भावतः हितकर आहार है।' १.पिनिमटी प.१७४। २.प्रमाणोपेत आहार मित आहार है। 3. बत्तीस कवल प्रमाण आहार से कम आहार करना अल्पाहार है।