________________ अनुवाद-जी-३५ 439 1636. शुद्ध एषणा से प्राप्त अमनोज्ञ आहार परलोक के लिए हितकर है, इस लोक के लिए नहीं। पथ्य और एषणा से शुद्ध आहार को दोनों लोकों के लिए हितकर जानना चाहिए। 1637. अपथ्य और अनेषणीय आहार दोनों लोकों के लिए अहितकर है। अथवा राग और द्वेष से आहार करना दोनों लोकों के लिए अहितकर है। अब मैं मिताहार के बारे में कहूंगा। 1638. उदर के छह भाग करके, आधे उदर अर्थात् तीन भागों को व्यंजन सहित आहार के लिए, दो भाग पानी के लिए तथा छठा भाग वायु-संचरण के लिए खाली रखना चाहिए। 1639. काल तीन प्रकार का जानना चाहिए-शीत, उष्ण और साधारण। इन तीनों कालों में होने वाली आहार की मात्रा इस प्रकार है१६४०. पानी का एक भाग तथा भोजन के दो भाग अवस्थित हैं, ये घटते-बढ़ते नहीं हैं। एक-एक में शेष दो-दो भाग बढ़ते-घटते हैं, जैसे-अतिशीतकाल में भोजन के दो भाग बढ़ जाते हैं तथा अतिउष्णकाल में पानी के दो भाग बढ़ जाते हैं। अतिउष्णकाल में भोजन के दो भाग कम हो जाते हैं तथा अतिशीतकाल में पानी के दो भाग कम हो जाते हैं। 1641. यहां तीसरा और चौथा–ये दोनों भाग अनवस्थित अथवा अस्थिर हैं। पांचवां, छठा, पहला और दूसरा-ये अवस्थित भाग हैं। 1642. मिताहार का वर्णन कर दिया, इससे भी कम आहार करना अल्पाहार है। प्रमाण आहार का वर्णन कर दिया, अब अंगार दोष का वर्णन करूंगा। 1643. स-अंगार दोष आहार करने पर चतुर्गुरु, जिसका प्रायश्चित्त-दान है-उपवास। सधूम आहार करने पर चतुर्लघु, जिसका प्रायश्चित्त दान है-आयम्बिल। 1644. निष्कारण भोजन करने पर चतुर्लघु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल प्राप्त होता है। दूसरे 'विकल्प में लघुमास, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त पुरिमार्ध होता है। 1645. यदि कारण उपस्थित होने पर मुनि आहार नहीं करता है, तब भी चतुर्लघु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल प्राप्त होता है। स-अंगार आदि का स्वरूप मैं क्रमशः कहूंगा। 1646. जिस प्रकार प्रज्वलित अंगारे बीच में पड़े हुए ईंधन को जला देते हैं, वैसे ही राग रूपी अंगारे नियमतः चरण रूप ईंधन को जला देते हैं। 1647. यह आहार अच्छा है, सुसंभृत है, स्निग्ध है, सुपक्व है, सरस और सुगंध युक्त है, इस प्रकार आहार की प्रशंसा करते हुए राग से मूर्च्छित होकर आहार करना स-अंगार दोष है। 1648. मुनि प्रासक आहार को भी यदि रागाग्नि से प्रज्वलित होकर करता है तो वह चारित्र रूपी ईंधन को शीघ्र ही निर्दग्ध अंगारे की भांति बना डालता है। 1649. स-अंगार दोष का वर्णन कर दिया, अब मैं प्रसंगवश सधूम दोष का वर्णन करूंगा। जैसे धूमयुक्त गोबर का कंडा केवल पीड़ा देता है।