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________________ 434 जीतकल्प सभाष्य . 1586. इसमें भी संहरण दोष की भांति शुष्क से शुष्क उन्मिश्र आदि चार भंग होते हैं तथा अल्प और बहुत की चतुर्भगी भी जाननी चाहिए। इन दोनों चतुर्भगियों में अनाचीर्ण और आचीर्ण का भी वही क्रम है। 1587. उन्मिश्र दोष का कथन सम्पन्न हुआ, अब मैं द्विविध परिणत के बारे में कहूंगा। अपरिणत के दो भेद हैं-द्रव्य अपरिणत और भाव अपरिणत / द्रव्य अपरिणत में पृथ्वीकाय आदि षड्जीवनिकाय हैं। 1588. सचेतन पृथ्वी आदि जब तक सजीव है, तब तक अपरिणत है और व्यपगत जीव होने पर परिणत होती है। यहां दूध-दही का दृष्टान्त है। दूध जब दही बनता है, तब परिणत कहलाता है और दूध दुग्धभाव में अवस्थित रहने पर अपरिणत कहलाता है। 1589. द्रव्य से अपरिणत आहार षड्जीवनिकाय की हिंसा से सम्बन्धित होता है अतः उसका प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। अब मैं संक्षिप्त में भाव से अपरिणत के बारे में कहूंगा। 1590, 1591. दो भाई आदि का अथवा अन्य के साथ संयुक्त आहार में एक व्यक्ति भाव से मुनि को देना चाहता है, दूसरा भाव से अपरिणत अर्थात् मुनि को देना नहीं चाहता अथवा अन्य को देना चाहता है तो वह भावतः अपरिणत' आहार है। 1592. भिक्षार्थ गए संघाटक में से एक मुनि ने देय वस्तु को मन ही मन एषणीय माना तथा दूसरे ने एषणीय नहीं माना, उसे भी ग्रहण नहीं करना चाहिए, जिससे आपस में कलह न हो। 1593. द्रव्यतः अपरिणत तथा भावतः अपरिणत को ग्रहण करने पर लघुमास प्रायश्चित्त, जिसका तप . रूप प्रायश्चित्त-दान पुरिमार्ध होता है। 1594. अपरिणत द्वार के बारे में कह दिया, अब मैं लिप्त द्वार के बारे में कहूंगा। जहां तीमन आदि द्रव्य का लेप होता है, वहां लिप्त दोष होता है। 1595. साधु को लिप्त दोष युक्त आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए, जिससे पश्चात्कर्म की संभावना न रहे। साधु को दोषरहित अलेपकृत आहार ग्रहण करना चाहिए। 1596, 1597. आचार्य द्वारा ऐसा कहने पर शिष्य प्रश्न पूछता है कि यदि इस प्रकार पश्चात्कर्म दोष लगता है, तब तो यावज्जीवन आहार नहीं करना चाहिए। गुरु उत्तर देते हैं कि कौन ऐसा व्यक्ति है, जो कल्याण की इच्छा नहीं करता। यदि आवश्यक योगों की हानि नहीं होती है तो आहार छोड़ा जा सकता है। यदि मुनि आहार छोड़ने में समर्थ न हो तो वहां आठ भंग हैं१५९८. संसृष्ट हाथ, संसृष्ट पात्र तथा सावशेष द्रव्य-ये तीन तथा इनके प्रतिपक्षी तीन-असंसृष्ट हाथ, 1. टीकाकार मलयगिरि अनिसृष्ट और दातृभाव से अपरिणत का अंतर स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि सामान्यतः अनिसृष्ट में दाता परोक्ष होता है लेकिन दातभाव से अपरिणत में दाता समक्ष होता है। १.पिनिमटी प.१६६।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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