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________________ अनुवाद-जी-३५ 433 1575. इन चालीस दायकों में कुछ दायकों से ग्रहण करने की भजना है तथा कुछ दायकों से ग्रहण करने की वर्जना है। इसके विपरीत बाल आदि के अतिरिक्त दायकों से ग्रहण किया जा सकता है। 1576. ये दायक दोष से युक्त हैं, इनके द्वारा दिया गया आहार कल्प्य नहीं होता। जो मुनि अकारण इनके हाथ से भिक्षा ग्रहण करता है, उसके लिए मैं प्रायश्चित्त कहूंगा। 1577. बाल, वृद्ध, मत्त, उन्मत्त, कम्पित शरीर वाला तथा ज्वरित-इनके हाथ से भिक्षा ग्रहण करने पर प्रत्येक का प्रायश्चित्त लघुमास, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त पुरिमार्ध होता है। 1578. अंध, गलत्कुष्ठरोगी से लेकर बालवत्सा स्त्री-स्तनपायी शिशु वाली स्त्री से आहार लेने पर प्रत्येक का प्रायश्चित्त चतुर्गुरु है, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त उपवास प्राप्त होता है। 1579. भोजन करती हुई तथा दही आदि मथती हुई स्त्री से आहार ग्रहण करने पर चतुर्लघु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल होता है। अब मैं धान्य-भर्जन आदि से सम्बन्धित प्रायश्चित्त के बारे में कहूंगा। 1580, 1581. चने आदि पूंजती हुई, गेहूं आदि दलती हुई स्त्री यावत् षड्जीवनिकाय से युक्त हाथ वाली स्त्री, श्रमण को भिक्षा देने के लिए छहजीवनिकायों को भूमि पर डालती हई,उनका अवगाह करती हुई तथा उनका घट्टन-स्पर्श करती हुई स्त्री-इन सबमें षड्जीवनिकाय की हिंसा के कारण अलग-अलग प्रायश्चित्त-दान होता है। शेष द्वारों में चतुर्लघु, जिसका तप रूप प्रायश्चित्त आयम्बिल प्राप्त होता है। 1582. वर्जित दायकों का वर्णन कर दिया, अब मैं उन्मिश्र दोष के बारे में कहूंगा। वह तीन प्रकार का होता है-सचित्त, मिश्र और अचित्त। 1583. संहरण द्वार में पृथ्वीकाय आदि के जो सांयोगिक भंग हैं, वैसे ही उन्मिश्र दोष में भी निरवशेष रूप से भेद होते हैं। 1584, 1585. शिष्य प्रश्न करता है कि संहरण और उन्मिश्र इन दोनों दोषों में क्या अन्तर है? संहरण दोष में भिक्षा देने के लिए अदेय वस्तु को बाहर फेंकता है। उन्मिश्र दोष में दातव्य और अदातव्य दोनों द्रव्यों को मिलाकर साधु को भिक्षा देता है, जैसे-बीज, हरियाली आदि से उन्मिश्र करके अथवा ओदन को कुशन-दही तीमन आदि से मिश्रित करके देना। 1. पिण्डनियुक्ति के टीकाकार मलयगिरि के अनुसार प्रथम पच्चीस दायकों से ग्रहण की भजना है, ऐसा कुछ आचार्य मानते हैं तथा कुछ आचार्यों की यह मान्यता है कि 26 से 40 तक के दाता का वर्जन ही करना चाहिए। 2. आचार्य मलयगिरि ने बालवत्सा स्त्री से भिक्षा लेने का एक और दोष बताते हुए कहा है कि साधु को भिक्षा देने से हाथ आहार से खरंटित हो जाते हैं। आहार से लिप्त शुष्क हाथ कर्कश होते हैं, उससे बालक को उठाने में उसे कष्ट होता है। १.पिनिमटी प. 161 / . 3. संहरण आदि प्रत्येक द्वार के भंगों के आधार पर 432 भंग इस प्रकार बनते हैं -सचित्त पृथ्वी का सचित्त पृथ्वीकाय पर संहरण, सचित्त पृथ्वीकाय का सचित्त अप्काय पर संहरण / इसी प्रकार स्वकाय और परकाय की , अपेक्षा से 36 भंग होते हैं। इनके सचित्त, अचित्त और मिश्र पद से प्रत्येक की तीन-तीन चतुर्भंगी होने से 12 भेद होते हैं। 12 का 36 से गुणा करने पर 432 भेद होते हैं, इसी प्रकार उन्मिश्र आदि के भंग जानने चाहिए। १.पिनिमटी प. 165 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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