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________________ 320 जीतकल्प सभाष्य हुआ आसपास के अनेक गांव के लोगों का घात कर सकता है। (अतः भक्तप्रत्याख्याता के शरीर और उपकरणों पर चिह्न करके विधिपूर्वक उसका परिष्ठापन करना चाहिए।) 493. यदि परीषहों के उदय से भक्तप्रत्याख्याता को व्याघात हो जाए तो निर्यापक साधु उसे प्रकाशित न करे क्योंकि इससे प्रवचन का लघुत्व होता है। व्याघात उत्पन्न होने पर गीतार्थ को उपाय करना चाहिए। 494, 495. गीतार्थ को क्या उपाय करना चाहिए, इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि व्याघात की स्थिति में संलेखनागत किसी अन्य उत्साहित मुनि को भक्तप्रत्याख्याता के संस्तारक पर सुला देना चाहिए तथा भक्तप्रत्याख्याता का एकान्तस्थान में ग्लान-परिकर्म करना चाहिए। अन्य मुनि की अनुपस्थिति में उस संस्तारक पर वृषभ मुनि को स्थापित किया जाए फिर लोगों के सामने यह प्रकाशित किया जाए कि वह भक्तप्रत्याख्याता मुनि कालगत हो गया तथा सन्ध्याकाल में उसे उपाश्रय से बाहर निकाल दिया गया। 496. यदि दण्डिक आदि को यह बात ज्ञात हो जाए तो यह यतना करनी चाहिए-सभी साधु वहां से चले जाएं अथवा किसी अन्य सहायक के साथ भक्तप्रत्याख्याता को अन्यत्र प्रेषित कर दे। भक्तप्रत्याख्याता की निंदा करने पर चार अनुद्घात-गुरुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 497. सपराक्रम भक्तप्रत्याख्यान के व्याघातिम और निर्व्याघातिम भेदों के बारे में वर्णन कर दिया, अब मैं दूसरे अपराक्रम भक्तप्रत्याख्यान के निर्व्याघातिम भेद के बारे में कहूंगा। 498. पराक्रम तथा बल से हीन भक्तप्रत्याख्याता अन्य गण में नहीं जाता, वह अपने गण में ही अनशन स्वीकार करता है। सपराक्रम भक्तप्रत्याख्यान की भांति अपराक्रम के बारे में भी जानना चाहिए। निर्व्याघात अनशन का वर्णन पूर्ण हो गया। 499. इस प्रकार आनुपूर्वी व्याघातिम भक्तप्रत्याख्यान के विषय में जानना चाहिए। इसमें अन्तर केवल इतना ही है कि मुनि रोग और आतंक से अभिभूत होकर अनशन को स्वीकार करता है। यदि निम्न कारणों से मरता है तो वह व्याघातिम भक्तप्रत्याख्यान बालमरण भी हो सकता है। . 500. व्याल, भालू, विष, विसूचिका-हैजा, आतंक, कौशलक श्रावक, उच्छ्वास, गृध्रपृष्ठ', रज्जू आदि से 1. टीकाकार मलयगिरि के अनुसार यदि अनशन स्वीकार करने के बाद भी बाल बढ़ जाएं तो लोच अवश्य कर देना चाहिए तथा उपकरण आदि उसके पास रख देने चाहिए। चिह्न न होने पर कोई मृत शरीर को देखकर यह सोच सकता है कि इस गृहस्थ को किसी ने बलपूर्वक मार दिया है। यदि यह बात दंडिक के पास पहुंचती है तो मार्गणा और गवेषणा के लिए वह पांच-दश गांवों का घात कर सकता है। 1. व्यभा 4375 मटी प. 74 / 2. गृध्रपृष्ठ मरण में हाथी, ऊंट, गीध आदि बृहत्काय पशओं के कलेवर में प्रविष्ट होने से उस कलेवर के साथ साथ उस जीवित शरीर को भी गीध, चील, शृगाल आदि जानवर नोच-नोचकर मार देते हैं। खाल में प्रविष्ट जीवित मनुष्य उनको निवारित नहीं करता है। गृध्रपृष्ठ का अर्थ है-गीध आदि के द्वारा खाए जाने वाले शरीर के पीठ, उदर आदि अवयव / परिस्थिति आने पर संयम की रक्षा हेतु इस मरण को कोई बलशाली व्यक्ति ही स्वीकार कर सकता है, यह कर्मनिर्जरा का प्रधान साधन है। 1. उशांटी प. 234 //
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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