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________________ अनुवाद-जी-१ 321 फांसी', वैहायस मरण, दुर्भिक्ष, अशिव, अभिघात, संबद्ध –जकड़न आदि कारणों से होने वाला मरण बालमरण हो सकता है। 501-07. व्याल अर्थात् सर्प आदि के द्वारा खाने से शरीर सड़ने पर, भालू के द्वारा कान, होठ या नाक आदि काट लेने पर, विष व्याप्त होने पर, विसूचिका रोग उत्पन्न होने पर, तीन बार चिकित्सा-क्रिया करा लेने पर भी रोग शान्त नहीं हो ऐसा क्षय आदि आतंक उत्पन्न होने पर, दुर्भिक्ष में कौशलक श्रावक ने अन्यत्र विहार करके पांच सौ साधुओं को यह कहकर रोका कि मैं आप लोगों को भक्तपान दूंगा। बाद में लाभ को जानकर उस लुब्ध ने धान्य को बेच दिया। वृत्तिछेद–भोजन आदि न मिलने पर उस दुर्भिक्ष काल में क्षुधा वेदना को सहन न कर पाने के कारण कौशल देश में साधुओं ने श्वास-निरोध आदि करके बालमरण को प्राप्त किया। कौशल देश की भांति अन्य देश में भी दर्भिक्ष होने पर यह स्थिति हो सकती है अथवा जंगल में मार्ग छूटने पर गृध्रपृष्ठ आदि मरण तथा अशिव गृहीत होने पर, विद्युत् का अभिघात होने पर, गिरिभित्ति अथवा पहाड़ के कोने से गिरने पर तथा वायु से हाथ-पैर जकड़ जाने पर होने वाला मरण बालमरण होता 508. इन कारणों से होने वाले मरण को व्याघातिम मरण जानना चाहिए। परिकर्म किए बिना वह भक्तप्रत्याख्यान स्वीकृत करता है। 509. यदि साधु उपर्युक्त पंडित मरण करने में असमर्थ होता है तो श्वासनिरोध, गृध्रपृष्ठ और रज्जु का फंदा लगाकर मरण प्राप्त करते हैं। 510. अनुपूर्वी विहारी-ऋतुबद्धकाल में मासकल्प तथा वर्षावास में चार मास के कल्प से विहार करने 1. गले में रस्सी बांधकर वृक्ष की शाखा पर लटकने, पर्वत से गिरने, प्रपात से झंपा लेने से होने वाले मरण को वैहायस . मरण कहा जाता है। भाष्यकार ने यहां वैहायसमरण को बालमरण के अन्तर्गत सम्मिलित किया है लेकिन गध्रपृष्ठ और वैहायस-ये दोनों मरण दर्शन की मलिनता और चारित्र में अधीरता आदि प्रसंग आने पर तीर्थंकरों द्वारा अनुज्ञात * हैं। उदायी राजा के मरने पर आचार्य ने इन दोनों में से किसी एक मरण को स्वीकार किया था।' आचारांग में ब्रह्मचर्य की सुरक्षा हेतु मुनि को वैहायस मरण के प्रयोग की स्वीकृति दी गई है। ठाणं में भी शील रक्षा हेतु ये दोनों मरण अनुज्ञात हैं। टीकाकार शान्त्याचार्य के अनुसार गृध्रपृष्ठ मरण का अन्तर्भाव वैहायस मरण में हो जाता है। अल्पशक्ति वाले इस मरण को स्वीकार नहीं कर सकते अतः इसका पृथक्ग्रहण किया गया है। गृध्रपृष्ठ और वैहायस मरण के बारे में आचार्य महाप्रज्ञ की समालोचनात्मक टिप्पणी पठनीय है। 1. उशांटी प. 234, 235 / 2. उशांटी प. 234, 235 / 3. आ८/५८; तवस्सिणो हुतं सेयं, जमेगे विहमाइए। 4. स्था 2/413 / 5. उशांटी प. 234; एवं गध्रपृष्ठस्याप्यात्मघातरूपत्वाद्वैहायसिकेऽन्तर्भावः, सत्यमेतत्, केवलमल्पसत्त्वरध्यवसातुम शक्यताख्यापनार्थमस्य भेदेनोपन्यासः। 6. भभा 1,2/49, पृ. 227-30 / / २.कथा के विस्तार हेतु देखें परि 2, कथा सं.६।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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