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________________ 322 जीतकल्प सभाष्य वालों तथा उत्सर्ग में संयम-पालन करने वालों की जो शोधि होती है, वह शोधि व्याल आदि खाए जाने पर विहरण करने वालों की नहीं होती क्योंकि आहार-लोप के कारण उत्तर गुणों की वृद्धि नहीं हो सकती। 511. भक्तप्रत्याख्यान में स्वयं तथा दूसरे निर्यापकों की विधि कही, अब इंगिनीमरण और प्रायोपगमन में आत्म-निर्यापन-आत्मसेवा के बारे में कहूंगा। 512. प्रव्रज्या ग्रहण करके जब तक जीवन का विच्छेद न हो, तब तक मुनि पांच तुलाओं से स्वयं को तोलकर इंगिनीमरण अनशन में प्रवृत्त होता है। 513. भक्तपरिज्ञा में आत्म परिकर्म और पर परिकर्म-ये दोनों अनुज्ञात हैं / इंगिनीमरण में चतुर्विध आहार की विरति तथा परपरिकर्म वर्जित होता है। 514. उपसर्ग और परीषहों को सहन करता हुआ इंगिनीमरण स्वीकार करने वाला साधु खड़े होना, बैठना, सोना आदि इत्वरिक क्रियाएं यथासमाधि स्वयं करता है। 515. संहनन (प्रथम तीन संहनन) और धृति से सम्पन्न, श्रुत में नवपूर्वी, दशपूर्वी अथवा अंगों का धारक मुनि नियम से इंगिनीमरण अनशन स्वीकार करता है। 516. प्रव्रज्या आदि स्वीकार करके जब तक जीवन का विच्छेद न हो, तब तक पांच तुलाओं से स्वयं को तोलकर साधु प्रायोपगमन अनशन में परिणत होता है। 517. प्रायोपगमन अनशन दो प्रकार का जानना चाहिए-निर्हारी तथा अनिर्हारी। ग्राम आदि के बाहर गिरि-कंदरा में प्रायोपगमन अनशन को स्वीकार करना निर्हारी अनशन है। 518. गोकुल आदि के अंदर जब साधु उठने की स्थिति में न हो तो वह अनिर्हारी प्रायोपगमन अनशन है। इसका नाम पादपगमन क्यों है? क्योंकि यहां पादप-वृक्ष की उपमा दी गई है। 519. जैसे पादप सम या विषम भूमि पर जिस रूप में भी गिरता है, वह निष्कम्प रहता है। पादप की भांति साधु जब अपने अंगों को निश्चल और निष्प्रतिकर्म रखता है तो वह पादपोपगमन–प्रायोपगमन अनशन कहलाता है। 520. जैसे वायु आदि परप्रयोग से वृक्ष चलित होता है, वैसे ही प्रायोपगमन अनशन स्वीकार करने वाला शत्रु आदि के द्वारा हिलाए जाने पर चलित होता है। 521. त्रस प्राणी और बीज आदि से रहित, विस्तीर्ण, विशुद्ध और निर्दोष स्थण्डिल भूमि में निर्दोष साधु अभ्युद्यत मरण स्वीकार करते हैं। 1. व्यवहारभाष्य की टीका में निर्दारिम और अनि रिम की व्याख्या में कुछ अंतर है। वहां ग्राम आदि के अंदर स्वीकार किया जाने वाला अनशन, जिसमें दिवंगत होने पर मृत शरीर का निष्काशन किया जाता है, वह निर्दारिम प्रायोपगमन अनशन है तथा जो अनशन ग्राम आदि के बाहर स्वीकार किया जाता है, वह अनिर्झरिम प्रायोपगमन अनशन कहलाता है। १.व्यभा 4394 मटी प.७६;-निर्हारिमं नाम यद्ग्रामादीनामन्तः प्रतिपद्यते ततो हि मृतस्य स ततस्तस्यशरीरं निष्काशनीयं भवति, अनिििरमं नाम यद् ग्रामादीनां बहिः प्रतिपद्यते।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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