________________ अनुवाद-जी-१ 323 522. पूर्वभव के वैर के कारण कोई देवता प्रायोपगमन अनशनी का पाताल में संहरण कर लेता है तो भी चरमशरीरी होने के कारण वह किंचित् भी वेदना को प्राप्त नहीं करता। 523. प्रायोपगमन' अनशन स्वीकार करने वाले दिव्य, मानुष तथा तिर्यञ्च सम्बन्धी सभी उपसर्गों को पराजित करके विहरण करते हैं। 524. देव या मनुष्य कोई उसके मुख में द्विक या त्रिक प्रक्षिप्त कर दे तो भी वह व्युत्सृष्ट और त्यक्त देह वाला अनशनी जीवन पर्यन्त अपनी प्रतिज्ञा का वहन करता है। 525. द्रव्यों का द्विक -अनुलोम और प्रतिलोम द्रव्य, त्रिक-अनुलोम, प्रतिलोम और उभय सहित अथवा सचित्त और अचित्त का द्विक तथा सचित्त, अचित्त और मिश्र-यह त्रिक होता है। 526. कोई प्रायोपगमन अनशनी को पृथ्वी, अप्, अग्नि, वायु और वनस्पतिकाय पर संहृत कर दे तो भी वह व्युत्सृष्ट त्यक्तदेह अनशनी यावज्जीवन प्रतिज्ञा का पालन करता है। 527. धृति और बल से युक्त उन धीर पुरुषों के द्वारा जिस रूप में उपसर्ग सहन किए गए हैं, उनके उदाहरणों को मैं संक्षेप में कहूंगा। 528, 529. कुंभकारकट नगर में दंडकी राजा, पुरंदरयशा रानी तथा पालक नामक पुरोहित था। तीर्थंकर मुनि सुव्रतस्वामी के शिष्य स्कन्दक अनगार को 500 शिष्यों के साथ रुष्ट पुरोहित ने कोल्हू में पील दिया। सभी मुनि राग-द्वेष के तुलाग्र को सम करते हुए, समभाव का चिंतन करते हुए समाधि-मरण को प्राप्त हुए। * 530. यंत्र, करवत, शस्त्र और विविध श्वापदों के द्वारा शरीर का विध्वंस होने पर भी प्रायोपगमन अनशनी ध्यान से विचलित नहीं होते। 531. शत्रुभाव से प्रेरित होकर अशुभ परिणाम वाला कोई व्यक्ति प्रायोपगमन अनशनी के चारों ओर अग्नि प्रज्वलित कर दे तो भी उसका ध्यान विचलित नहीं होता, जैसे कंडों की अग्नि के बीच चाणक्य का ध्यान विचलित नहीं हुआ। 532. शत्रुतावश कोई व्यक्ति प्रायोपगमन में स्थित मुनि के शरीर की चमड़ी को कीलों से उधेड़कर शरीर को घृत और मधु से चुपड़कर चींटियों को देदे, तब भी वह मुनि अविचल भाव से उस कष्ट को सहन करता है। 533. जैसे व्युत्सृष्ट और निसृष्टदेह वाले चिलातपुत्र के रक्त की गंध से चींटियों ने उसके शरीर को 1. प्रायोपगमन अनशन स्वीकार करने वाला सर्वप्रथम अर्हत् और गुरु को वंदना करके गिरिकंदरा में जाकर दंडायत आदि किसी आसन में स्थिर हो जाता है। वह यावज्जीवन निश्चेष्ट होकर उसी मुद्रा में स्थिर रहता है। 2. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.७ / 3. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.८।