________________ 324 जीतकल्प सभाष्य चलनी जैसा बना दिया, फिर भी वह ध्यान से विचलित नहीं हुआ। 534. मोद्गल्य शैल शिखर पर जैसे शृगाल रूप में विकुर्वित देव ने प्रायोपगमन में स्थित कालासवैश्य पुत्र मुनि के शरीर को खा लिया। 535. जैसे व्युत्सृष्ट त्यक्त देह वाले प्रायोपगमन अनशन में स्थित मुनि को किसी शत्रु ने बांस के बने झुरमुट में फेंक दिया। जब बांस के पत्ते और डंडे बाहर निकले तो मुनि उनके द्वारा आकाश में उछाला गया। (उसने समभाव से उस वेदना को सहन किया।) 536. जैसे व्युत्सृष्ट, निसृष्ट, त्यक्तदेह और धीर अवन्तीसुकुमाल मुनि के शरीर को शृगाली ने अपने बच्चों के साथ तीन रात तक भक्षण किया। 537. जैसे व्युत्सृष्ट, निसृष्ट और त्यक्तदेह वाले कुछ मुनि गोट्ठस्थान-स्थान विशेष में प्रायोपगमन अनशन में स्थित थे। पानी से बहते हुए वे नदी के गर्त के कचरे में फंस गए। (समभाव से वेदना सहन करते हुए वे कालगत हो गए।') 538. जैसे बत्तीस धीर युवकों का समूह व्युत्सृष्ट, निसृष्ट और त्यक्त देह होकर अनशन में स्थित था। उन सबको द्वीपान्तरवर्ती एक म्लेच्छ ने वृक्ष की शाखा पर लटका दिया। 539. कोई तिर्यञ्च अथवा मनुष्य प्रायोपगमन अनशन में स्थित मुनि को विचलित करने के लिए बावीस परीषहों की आनुपूर्वी (पुर्वानुपूर्वी, पश्चादनुपूर्वी अथवा अनानुपूर्वी) क्रम से उदीरणा करे अथवा अनुकम्पा से प्रेरित होकर इष्ट विषयों की उदीरणा अथवा मुनि की रक्षा करे तो भी मुनि समभाव से उसे सहन करे। 540. प्रायोपगमन अनशनकर्ता मानता है कि जिस प्रकार तलवार म्यान में रहती है पर म्यान और तलवार दोनों अलग-अलग हैं, उसी प्रकार मेरा शरीर और जीव दोनों भिन्न-भिन्न हैं। 541. (उपसर्गों को समभाव से सहन करने पर) मुनि के एकान्त निर्जरा होती है तथा दो प्रकार की निश्चित आराधना होती है-अंतक्रिया-सिद्धिगति की प्राप्ति अथवा देवलोक में उत्पत्ति / 542. इस प्रकार धृति और बल से युक्त अनशनी प्रतिलोम उपसर्गों को समता से सहन करता है। वह अनुकूल उपसर्ग जिस रूप में सहता है, उसको मैं उसी रूप में कहूंगा। 543. कोई व्यक्ति अनशनकर्ता का सत्कार-सम्मान अथवा उसको स्नान आदि कराता है तो भी व्युत्सृष्ट 1. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 9 / 2. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 10 / 3. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 11 / 4. कथा के विस्तार हेतु देखें परि.२, कथा सं. 12 / 5. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 13 / 6. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 14 /