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________________ अनुवाद-जी-१ 325 और त्यक्त देह वाला वह मुनि जीवन-पर्यन्त अपने नियम का पालन करता है। 544. पूर्वभव के प्रेम के कारण कोई देव अनशन में स्थित उस मुनि का संहरण करके देवकुरु अथवा उत्तरकुरु क्षेत्र में ले जाता है, जहां सभी प्रकार के शुभ अनुभाव होते हैं तो भी मुनि जीवन-पर्यन्त अपनी प्रतिज्ञा का पालन करता है। 545. पूर्वभविक प्रेम के कारण कोई देव अनशन स्थित मुनि का संहरण करके नागभवन में ले जाता है, जहां सभी प्रकार के इष्ट, कान्त और शुभ अनुभाव होते हैं, (फिर भी मुनि यथायुः प्रतिज्ञा का पालन करता है।) 546, 547. कोई बत्तीस लक्षणों से युक्त नग्न शरीर वाला मुनि प्रायोपगमन अनशन में स्थित है, तब यदि कोई पुरुषद्वेषिणी राजकन्या राजा की आज्ञा से उसको पकड़कर स्नान तथा गंध द्रव्य का लेप करती है, पुष्पोपचार करके परिचारणा-गले लगाना, चुम्बन आदि करती है, वह श्रेष्ठ राजकन्या इन गुण-समूहों से युक्त होती है५४८. श्रोत्र आदि नौ अंग जिसके विकसित हो गए हैं, जो अठारह प्रकार की देशीभाषा तथा रति-क्रीड़ा विशेष में कुशल; चौंसठ महिला गुणों तथा बहत्तर कलाओं में निपुण है। 549-52. दो श्रोत्र, दो नेत्र, दो नासापुट, जिह्वा, स्पर्शन और मन-ये नौ अंग स्रोत हैं, देशी भाषा अठारह प्रकार की हैं। रति क्रीड़ाएं उन्नीस हैं, कौशल इक्कीस प्रकार का है-इन सभी गुणों से युक्त तथा रूप, यौवन, विलास और लावण्य से युक्त, चतुःकर्ण रहस्य से युक्त राजकन्या रागवश राज जा की आज्ञा से प्रायोपगमन में स्थित मुनि को ग्रहण कर लेती है। अनेक प्रकार से मुनि को क्षुब्ध करने पर भी जैसे सागर मछलियों एवं मगरमच्छों से क्षुब्ध नहीं होता, वैसे ही वह मुनि का चित्त क्षुभित नहीं कर पाती। जब वह पराजित हो जाती है, मुनि का शील खंडन करने में समर्थ नहीं होती, तब वह मुनि को पर्वत-शिखर पर ले जाकर नीचे गिराकर उसके ऊपर शिला फेंक देती है। 553. समभाव से सहन करने वाले उस मुनि के एकान्त निर्जरा होती है तथा दो प्रकार की आराधना निश्चित होती है-अंतक्रिया-सिद्धिगति की प्राप्ति अथवा देवलोक में उत्पत्ति / 554, 555. इस प्रकार देव, मनुष्य और तिर्यञ्च के द्वारा उत्पन्न बहुविध अनुलोम और प्रतिलोम घोर उपसर्गों से निर्दयतापूर्वक विचलित करने पर भी प्रायोपगमन अनशन में स्थित मुनि वैसे ही ध्यान से विचलित नहीं होता, जैसे मेरु पर्वत पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण-इन चारों दिशाओं से आकर टकराने वाली हवाओं से प्रकम्पित नहीं होता। 556. प्रायोपगमन अनशकर्ता वज्रऋषभनाराच संहनन वाला होता है। उसकी धृति शैलकुड्य के समान 1. दो आंख, दो कान, दो नासापुट, जिह्वा, स्पर्शन और मन-ये नौ अंग जब तक यौवन न आए, तब तक सुप्त रहते हैं। उस समय आलिङ्गन आदि में वह रति-सुख प्राप्त नहीं होता। यौवन आने पर ये प्रतिबुद्ध-विकसित हो जाते हैं।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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