________________ 326 जीतकल्प सभाष्य होती है। चौदह पूर्वी के विच्छेद के साथ ही प्रथम संहनन और प्रायोपगमन अनशन का विच्छेद हो गया। 557. यह निष्प्रतिकर्म प्रायोपगमन अनशन जिनेश्वर भगवान् द्वारा प्ररूपित है। तीर्थंकर, गणधर और साधुओं के द्वारा यह उदारभाव से सेवित है। 558. इसी प्रकार वर्तमानकाल में भी यथानुरूप जिस प्रकार शोधि होती है तथा शोधिकारक हैं, उन सबका मैंने वर्णन किया है। 559. इस आगम व्यवहार को मैंने यथोपदिष्ट यथाक्रम से कहा है। अब मैं श्रुत व्यवहार का यथाक्रम से निरूपण करूंगा। हे वत्स! उसे तुम सुनो। 560. चौदहपूर्वी भद्रबाहु ने श्रुत का निर्वृहण किया। पंचविध व्यवहार द्वादशांग का नवनीत है। 561. जिसने सूत्र–कल्प और व्यवहार आदि बहुत ग्रंथ पढ़ लिए फिर भी जो सूत्रार्थ में निपुण नहीं है, वह श्रुतधरों के लिए कल्प और व्यवहार में निपुण नहीं होता। 562. जो इन सूत्रों को बहुत पढ़ता है और इनके अर्थ में भी निपुण होता है, वह कल्प और व्यवहार में श्रुतधरों के लिए प्रमाणभूत होता है। 563, 564. जो परम निपुण कल्प (बृहत्कल्प) तथा व्यवहार की नियुक्ति को अर्थतः नहीं जानता, वह व्यवहारी के रूप में अनुज्ञान नहीं होता। जो परमनिपुण कल्पाध्ययन तथा व्यवहार की नियुक्ति को अर्थतः जानता है, वह व्यवगार्टी के रूप में अनुज्ञात होता है। 565. यह श्रुतव्यवहार यथोपदिष्ट तथा यथाक्रम से कहा गया है। वत्स! अब मैं आज्ञाव्यवहार का यथाक्रम से वर्णन करूंगा। 566. कोई श्रमण उत्तमार्थ अर्थात् भक्तप्रत्याख्यान को करने के लिए तत्पर होकर अपने शल्यों का उद्धरण करने के लिए अभिमुख हो किन्तु छत्तीस गुणों के धारक प्रायश्चित्त व्यवहारी आचार्य वहां से दूर हों तो (वहां आज्ञाव्यवहार का प्रवर्तन होता है।)। 567. (आलोचना करने का इच्छुक मुनि सोचता है कि) अब आचार्य के पास जाने का कारण उपस्थित हो गया है लेकिन अब मैं अशक्त हो गया हूं। व्रतषट्क आदि अठारह स्थानों में से किसी एक स्थान में मेरे द्वारा अतिचार का सेवन हुआ है। मैं अतिचार में पड़ा हूं अतः आज्ञाव्यवहार की इच्छा करता हूं। 568. अपराक्रमी तपस्वी शोधिकर आचार्य के पास जाने में समर्थ नहीं होता तो वह उनके पास शोधि हेतु अपने शिष्य को भेजकर कहता है-'मैं आपके पास शोधि करना चाहता हूं।' 569. गति में असमर्थ शोधिकर आचार्य भी अपने धारणाकुशल शिष्य को उसके पास भेजते हैं। वहां भेजने के योग्य शिष्य की इस विधि से परीक्षा करते हैं।