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________________ अनुवाद-जी-१ 327 570. गति में असमर्थ वह आलोचनाचार्य आज्ञापरिणामक' शिष्य की परीक्षा करता है। वह वृक्ष और बीज के आधार पर उसकी परीक्षा करता है। इस परीक्षा के बाद वह यह देखता है कि वह सूत्र और अर्थ को मोहरहित होकर धारण कर सकता है या नहीं? 571, 572. एक बड़े वृक्ष को देखकर आचार्य ने परीक्षा हेतु शिष्य से कहा-'वत्स! इस वृक्ष पर चढ़कर कूद जाओ।' इस बात को सुनकर अपरिणत शिष्य कहता है कि वृक्ष पर चढ़ना साधु के लिए कल्प्य नहीं है। क्या आप मुझे मारना चाहते हो जो यह कह रहे हो कि वृक्ष पर चढ़कर नीचे गिर जाओ। अतिपरिणामक शिष्य कहता है कि ऐसा ही होगा, मेरी भी यही इच्छा है। 573. यह उत्तर सुनकर अतिपरिणामक शिष्य को आचार्य कहते हैं कि तुम मेरे कथन का तात्पर्य समझे बिना ही ऐसा कह रहे हो कि मेरी भी इच्छा वृक्ष पर चढ़ने की है। अपरिणामक शिष्य को आचार्य कहते हैं कि क्या मैंने तुम्हें सचित्त वृक्ष पर चढ़ने के लिए कहा था? 574. आचार्य कहते हैं कि मेरे कथन का तात्पर्य था कि भवार्णव में प्राप्त तप, नियम और ज्ञान रूपी वृक्ष पर चढ़कर संसार रूपी अगड-कूप के मूल का उल्लंघन करो। 575, 576. परिणामक शिष्य 'वृक्ष पर चढ़ो' इस बात को सुनकर सोचता है कि आचार्य स्थावर जीवों की भी हिंसा नहीं करना चाहते तो फिर पंचेन्द्रिय प्राणी की हिंसा की बात कैसे संभव है? गुरु के इस वचन के पीछे कुछ कारण होना चाहिए। यह सोचकर शिष्य वृक्ष पर चढ़ने के लिए तत्पर होता है। चढ़ते हुए शिष्य का गुरु निवारण करते हैं। 577. इसी प्रकार गुरु के द्वारा ईमली के बीज लाने का कहने पर अपरिणामक शिष्य उसे लाने का निषेध कर देता है लेकिन अतिपरिणामक शिष्य पोटली भरकर बीज लेकर वहां आ जाता है। 578. गुरु उनको कहते हैं-'मैंने तुमको उगने में असमर्थ तथा अचित्त अम्लिका के बीज लाने को कहा 579. परिणामक शिष्य पूछता है कि मैं किस प्रकार के बीज लेकर आऊं? जो उगने में समर्थ हों अथवा असमर्थ? तथा यह भी बताएं कि कितनी मात्रा में लेकर आऊं? 580. गुरु उसको कहते हैं –'अभी बीज का प्रयोजन नहीं है। जब आवश्यकता होगी, तब कहूंगा। मैंने विनोद में बीज लाने को कहा था अथवा तुम्हारा विमर्श-परीक्षण करने के लिए ऐसा कहा था।' २.आज्ञापरिणामक शिष्य को जो कुछ करने के लिए आज्ञा दी जाती है, वह उसका कारण नहीं पूछता कि ऐसा क्यों किया जाए? वह आज्ञा को कर्त्तव्य के रूप में स्वीकार करता है। ...त्यभा 4443 मटी प.८२; आज्ञापरिणामको नाम यद् आज्ञाप्यते तत्कारणं न पृच्छति किमर्थमेतदिति किन्त्वाज्ञयैव कर्तव्यतया श्रद्दधाति, यदत्र कारणं तत् पूज्या एव जानते एवं यः परिणामयति स आज्ञापरिणामकः। र.कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 15 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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