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________________ 328 जीतकल्प सभाष्य 581. गुरु उस शिष्य को पद, अक्षर, उद्देश, संधि, सूत्र, अर्थ और तदुभय-इन सबको अक्षर और व्यञ्जन से शुद्ध धारण करवाते हैं, जो यथाभणित को पुनः कह सके। 582. इस प्रकार शिष्य की परीक्षा करके योग्य समझकर उसको भेजते हुए आचार्य कहें कि तुम आलोचना के इच्छुक उस मुनि के पास जाओ और आलोचना सुनकर लौट आओ। 583, 584. आलोचनाचार्य द्वारा भेजा गया वह शिष्य आलोचक के पास जाए और वह आलोचक उसके पास इस प्रकार शोधि करे–'द्विक अर्थात् दर्प' प्रतिसेवना' और कल्प प्रतिसेवना, त्रिक अर्थात् ज्ञान, दर्शन और चारित्र से सम्बन्धित, चतुविशुद्ध अर्थात् प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से शुद्ध। 585. वह शिष्य त्रिविध काल में वर्तमान, अतीत और भविष्य के अतिचारों की स्पष्ट रूप से आलोचना करता है। 586. वह किस चीज की आलोचना करता है? आचार्य कहते हैं कि वह अतिचार की आलोचना करता है। व्रतषट्क आदि क्रमशः अतिचार हैं। 587. अतिचार के 18 स्थान ये हैं -व्रतषट्क, कायषट्क, अकल्प्य पिंड, गृहि-भाजन में भोजन', पर्यंक १.बिना कारण दर्प से की जाने वाली प्रतिसेवना दर्प प्रतिसेवना कहलाती है। निशीथ भाष्य में इसे प्रमाद प्रतिसेवना भी कहा है। १.निभा 91 ; दप्पो तु जो पमादो। 2. प्रतिसेवना के विस्तार हेतु देखें जीभा 588 और जी 74 का टिप्पण। ३.ज्ञान आदि कारण उपस्थित होने पर अकल्प्य का सेवन कल्प प्रतिसेवना है। 4. अकल्प दो प्रकार का होता है -शैक्षस्थापना अकल्प तथा अकल्प स्थापना अकल्प। जिस मुनि ने पिण्डनियुक्ति का अध्ययन न किया हो, उसके द्वारा आनीत आहार शैक्षस्थापना अकल्प है तथा सचित्त आदि अकल्प्य भक्तपान, वस्त्र आदि ग्रहण करना अकल्प्य स्थापना अकल्प है। अकल्प्य आदि के वर्जन का प्रयोजन बताते हुए जिनदास चूर्णिकार कहते हैं कि जैसे पांच महाव्रतों की रक्षा के लिए पच्चीस भावनाएं होती हैं, वैसे ही व्रत और छह काय की रक्षा के लिए अकल्प्य आदि षट्क का वर्जन करना चाहिए। जैसे कुड्य और कपाटयुक्त घर के लिए दीपक और जागरण -ये दो रक्षा के हेतु होते हैं, वैसे ही पांच महाव्रत युक्त साधु के लिए ये उत्तरगुण सुरक्षा के हेत होते हैं। 1. दशजिचू पृ. 226; सेहटवणाकप्पो नाम जेण पिंडणिज्जुत्तीण सुता, तेसु आणियंन कप्पड़ भोत्तुं। 2. दशजिचू पृ. 226 ; जहा वा गिहस्स कुड्डकवाडजुत्तस्स वि पदीवजागरमाणादि रक्खणाविसेसा भवंति तह पंचमहव्वय जुत्तस्सवि साहुणो तेसिमणुपालणत्थं इमे उत्तरगुणा भवंति। 5. गृहस्थ के बर्तन में भोजन करने से पश्चात्कर्म और पुर:कर्म की संभावना रहती है इसलिए निर्ग्रन्थ के लिए यह कल्प्य नहीं है। जो भिक्षु गृहस्थ के पात्र में भोजन करता है और खाने वाले का अनुमोदन करता है, वह चतुर्लघु प्रायश्चित्त प्राप्त करता है। 1. निसू 12/11 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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