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________________ अनुवाद-जी-१ 329 पर बैठना', भिक्षा में गृहस्थ के घर बैठना, स्नान और विभूषा-वर्जन। (ये अठारह आचार हैं, इनका लोप करना अतिचार है।) 588. दर्प से अथवा कल्प से प्रतिसेवना' की हो तो उसकी आलोचना करनी चाहिए। दर्प से दश प्रकार 1. दशवैकालिक सूत्र में साधु के लिए पर्यंक पर बैठना अनाचीर्ण है। पर्यंक आदि में गंभीर छिद्र होते हैं, इनमें प्राणियों की प्रतिलेखना करना कठिन होता है इसलिए पलंग आदि पर बैठना या सोना वर्जित है। 1. दश 6/53-55 / 2. गृहस्थ के घर में बैठने से निम्न दोष उत्पन्न होते हैं-आचार का विनाश, अवध काल में प्राणियों का वध क्योंकि साधु को घर में बैठा हुआ देखकर गृहस्थ जल्दी-जल्दी खाना बनाता है, भिक्षाचरों के अंतराय, गृहस्थों के मन में अप्रीति, ब्रह्मचर्य की असुरक्षा तथा स्त्री के प्रति शंका उत्पन्न होती है। दशवैकालिक सूत्र के अनुसार तीन प्रकार के व्यक्ति भिक्षा के समय गृहस्थ के घर बैठ सकते हैं -वृद्ध, रोगी और तपस्वी।२ 1. दश 6/57, 58 2. दश 6/59 / 3. स्नान की अभिलाषा रखने वाला साधु आचार का उल्लंघन करता है तथा संयम से च्युत हो जाता है। अप्रासुक जल से स्नान करने पर भी पोली भूमि में उसे डालने से प्राणियों की हिंसा होती है। 1. दश 6/60,61 / 4. विभूषा करने वाला भिक्षु सघन कर्मों का बंधन करता है और दुस्तर संसार-सागर में भ्रमण करता रहता है। विभूषा की इच्छा रखना भी चिकने कर्मों के बन्धन का कारण तथा सावध बहुल है।' 1. दश 6/65, 66 / 5. प्रतिसेवना जीव का परिणाम है। वह परिणाम कुशल और अकुशल-दोनों प्रकार का हो सकता है। कुशल परिणाम से की गई कल्प प्रतिसेवना तथा अकुशल परिणाम से की गई दर्प प्रतिसेवना' कहलाती है। दर्प प्रतिसेवना राग-द्वेष के वशीभूत होकर निष्कारण की जाती है, कल्प प्रतिसेवना में उसका अभाव होता है। प्राणातिपात आदि से सम्बन्धित मूलगुण प्रतिसेवना तथा पिण्डविशोधि आदि से सम्बन्धित उत्तरगुण विषयक प्रतिसेवना कहलाती है। निशीथ भाष्य में मिश्र प्रतिसेवना का भी उल्लेख मिलता है। इसका स्पष्टीकरण करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि ज्ञान आदि का प्रशस्त आलम्बन लेकर जो सावध आचरण करता है, किन्तु उसका पश्चात्ताप नहीं करता, वह मिश्र प्रतिसेवना है। इसमें सालम्बन पद शुद्ध तथा अननुतापी पद अशुद्ध है। इसी प्रकार प्रमाद से जो प्रतिसेवना की जाती हैं, वह अशुद्ध और उसका अनुताप करना शुद्ध है। इस प्रकार पश्चात्ताप युक्त प्रमाद प्रतिसेवना भी मिश्र प्रतिसेवना है। इसके दश भेद हैं -1. दर्प-निष्कारण प्रतिसेवना करना। 2. प्रमाद-प्रमाद के कारण प्रतिसेवना करना। 3. आतुर-ग्लान अवस्था में क्षुधा आदि से आतुर होने पर की जाने वाली प्रतिसेवना। 4. आपत्ति-आपत्ति की स्थिति में शुद्ध द्रव्य न मिलने पर की जाने वाली प्रतिसेवना। 5. तिंतिण-पदार्थ की अप्राप्ति पर तिनतिनाहट करके की जाने वाली प्रतिसेवना।६. सहसाकार-सहसा अयतना से होने वाली प्रतिसेवना।७. भय-राजा के भय से अथवा सिंह आदि के भय से अकल्प्य कार्य करना। 8. प्रद्वेष-कषाय के वशीभूत होकर की जाने वाली - प्रतिसेवना।९. विमर्श-परीक्षा के निमित्त की जाने वाली प्रतिसेवना। ठाणं में ये प्रतिसेवना के भेद हैं, वहां एक दो नामों में तथा क्रम में अंतर है-दर्प, प्रमाद, अनाभोग, आतुर, आपत्ति, शंकित, सहसाकरण, भय, प्रद्वेष, विमर्श। ठाणं सूत्र (10/69) में दश प्रतिसेवनाओं में कल्पिका प्रतिसेवना का उल्लेख नहीं है। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार अनाभोग और सहसाकरण कल्पिका प्रतिसेवना के वाचक होने चाहिए क्योंकि अनाभोग में प्रमाद नहीं अपितु उपयोग शून्यता की स्थिति है तथा सहसाकरण में उपयुक्तता होने पर भी शारीरिक स्थिति नियंत्रित न होने के कारण हिंसा आदि का समाचरण हो जाता है। 1. दर्प प्रतिसेवना हेतु देखें 589-600 तक की गाथाओं का अनुवाद। २.व्यभा 39; कुसलेण होति कप्पो, अकुसलपरिणामतो दप्यो। 3. निभा 363 ; रागद्दोसाणुगता तु, दप्पिया कप्पिया तु तदभावा। ४.निभा 477 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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