________________ 330 जीतकल्प सभाष्य के आसेवन का कथन इस प्रकार कहूंगा। 589. 1. दर्प अर्थात् निष्कारण धावन आदि करना 2. अकल्प्य का उपभोग 3. निरालम्ब प्रतिसेवना 4. चियत्त-बिना प्रयोजन अकृत्य की प्रतिसेवना 5. अप्रशस्त बल, वर्ण आदि के निमित्त प्रतिसेवना 6. विश्वस्त और निर्भय होकर प्राणातिपात आदि की प्रतिसेवना 7. अपरीक्ष्य-युक्तायुक्त के विवेक से विकल होकर की जाने वाली प्रतिसेवना 8. अकृतयोगी-अगीतार्थ 9. अननुतापी 10. नि:शंक-इहलोक और परलोक की शंका से रहित। 590. निष्कारण व्यायाम', वल्गन-कूदना आदि तथा निष्कारण धावन आदि करना दर्प प्रतिसेवना है। षट्काय के जीव अपरिणत-पूर्ण अचित्त न हुए हों, उसे ग्रहण करना तथा अगीतार्थ के द्वारा लाए गए अकल्प्य आहार का भोग अकल्प्य प्रतिसेवना है। 591. विषम गर्त में गिरा हुआ व्यक्ति जैसे लता-वितान का सहारा लेकर बाहर आ जाता है, वैसे ही संसार रूपी गर्त में गिरा हुआ व्यक्ति ज्ञान का आलम्बन लेकर मोक्षतट को प्राप्त कर लेता है। 592. यदि मैं अपवाद पद का आसेवन नहीं करूंगा तो ज्ञान आदि की वृद्धि नहीं होगी अतः ज्ञान आदि के संधान हेतु जो अपवाद सेवन किया जाता है, वह सालम्ब-प्रतिसेवना है। 593. ज्ञान आदि आलम्बन के बिना दोष सेवन करना अथवा अप्रशस्त आलम्बन से दोष सेवन करना, जैसे-अमुक व्यक्ति ने दोष का सेवन किया है फिर मैं भी सेवन करूं तो क्या दोष है, यह निरालम्ब प्रतिसेवना है। 594. असाध्य रोग आदि की स्थिति में जिस अपवाद का सेवन किया, स्वस्थ होने पर भी उसी का सेवन करने वाला त्यक्तकृत्य कहलाता है, यह त्यक्त प्रतिसेवना है। 595. प्रासुकभोजी मुनि भी यदि बल, वर्ण और रूप के लिए खाता है तो वह भी अप्रशस्त है, फिर जो बल, वर्ण, रूप आदि के लिए अशुद्ध भोजन का सेवन करते हैं, उनका तो कहना ही क्या? (यह पांचवीं अप्रशस्त दर्प प्रतिसेवना है।) 596. जो कार्य लोक और लोकोत्तर में विरुद्ध है, ऐसे अकृत्य का सेवन करते हुए भी जो स्वपक्ष-श्रावक तथा परपक्ष-मिथ्यादृष्टि से लज्जित नहीं होता, यह छठी विश्वस्त प्रतिसेवना है। 597. लाभ और हानि का विमर्श किए बिना प्रतिसेवना करना अपरीक्ष्य दर्प प्रतिसेवना है। त्रिगुण योग'को नहीं करके अपवाद पद का सेवन करने वाला अकतयोगी होता है। 1. लाठी घुमाना तथा पत्थर आदि फेंकना व्यायाम है। १.निचू 1 पृ. 157; वायामो जहा लगुडिभमाडणं, उवलयकड्डणं। 2. निशीथ चूर्णिकार ने त्रिगुण योग की व्याख्या प्रस्तुत की है। असंथरण की स्थिति में तीन बार एषणीय की अन्वेषणा करने पर भी यदि एषणीय की प्राप्ति न हो तो चौथी बार अनेषणीय ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार के त्रिगुण योग को न करके दूसरी बार में अनेषणीय को ग्रहण करके अपवादपद का सेवन करने वाला अकृतयोगी होता है। १.निचू 1 पृ.१५९; असंथरातीसु तिण्णिवारा एसणियं अण्णेसिउंजता ततियवाराए विण लब्भति तदा घउत्थपरिवाडीए अणेसणियं घेत्तव्वं। एवं तिगुणं जोगमकाऊण", बितियवाराए चेव अणेसणीयं गेहति जो सो अकडजोगी भण्णति।