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________________ अनुवाद-जी-१ 331 598. द्वितीय पद (अपवाद स्थिति) में जो दूसरों को परितापित करके बाद में पश्चात्ताप नहीं करता, वह अननुतापी होता है। फिर दर्प से प्रतिसेवना का सेवन करने वाले का तो कहना ही क्या है? (यह नवीं अननुतापी दर्प प्रतिसेवना है।) 599. शंका दो प्रकार की होती है-१. करण–क्रिया आदि करते हुए आशंकित होना / 2. भय–दोष के प्रति उद्वेग। अकरणीय करते हुए इहलोक और परलोक कहीं से भी भय या शंका नहीं करना, निःशंक नामक दसवीं दर्प प्रतिसेवना है। 600. यह दर्प सम्बन्धी दशविध प्रतिसेवना संक्षेप में कही गई है। अब कल्प सम्बन्धी चौबीस प्रकार की प्रतिसेवना कहूंगा।' 601, 602. कल्पिकारे प्रतिसेवना के 24 भेद इस प्रकार हैं-१. दर्शन 2. ज्ञान 3. चारित्र 4. तप 5. प्रवचन ६.समिति 7. गप्ति ८.साधर्मिक वात्सल्य 9. कल १०.गण 11. संघ 12. आचार्य 13. असहअसमर्थ 14. ग्लान 15. बाल 16. वृद्ध 17. उदक-प्लावन 18. अग्नि-दावाग्नि 19. चोर 20. श्वापद 21. भय २२.कान्तार 23. आपदा और 24. व्यसन-मद्यपान आदि। इनके लिए की जाने वाली प्रतिसेवना कल्प प्रतिसेवना है। 603. दर्शन प्रभावक शास्त्रों के ग्रहण हेतु प्रयोजनवश जो प्रतिसेवना की जाती है, वह दर्शन प्रतिसेवना है। सूत्र और अर्थ को धारण करने में समर्थ न होने पर असंथरण की स्थिति में ज्ञान से सम्बन्धित जो आसेवना होती है, वह शुद्ध है। 604. चारित्र के अन्तर्गत जिस क्षेत्र में एषणा के दोष और स्त्री सम्बन्धी दोष हों, अनिर्वाह की स्थिति में वहां विहरण करते हुए जो प्रतिसेवना होती है, वह शुद्ध है। 605. 'आगे तप करूंगा' यह सोचकर घृत आदि का सेवन करना तथा विकृष्ट तप के पारणे में दोषसहित 1. निशीथ भाष्य में दर्प और कल्प के अतिरिक्त मिश्र प्रतिसेवना के भी 10 भेदों का विस्तार प्राप्त है, देखें निभा 475-83 / 2. कल्पिका प्रतिसेवना के बारे में निशीथ भाष्य में व्याख्या मिलती है। भाष्यकार कहते हैं कि कारण उपस्थित होने पर कल्प प्रतिसेवना की अनुज्ञा है फिर भी सावध होने के कारण निश्चय नय से वह अकरणीय ही है। कारण उपस्थित होने पर भी भलीभांति लाभ-हानि का चिन्तन करने के पश्चात् अकरणीय प्रतिसेवना में प्रवृत्त होना चाहिए। भाष्यकार कहते हैं कि कल्पिका प्रतिसेवना अनुज्ञात है, फिर भी इसका वर्जन करने में आज्ञाभंग आदि दोष नहीं हैं। कल्प प्रतिसेवना न करने से दृढ़धर्मिता, बार-बार दोष-सेवन न होना तथा जीवों के प्रति करुणा आदि गुण प्रकट होते है अतः कल्पिका प्रतिसेवना का प्रयोग भी सहसा नहीं करना चाहिए। १.निभा 459, 460 चू पृ. 155, 156; कारण पडिसेवा वि य, सावज्जा णिच्छए अकरणिज्जा। बहुसो विचारइत्ता, अधारणिज्जेसु अत्थेसु।। ..जति वि यसमणुण्णाता, तह विय दोसो ण वज्जणे दिट्ठो। दढधम्मता हु एवं,णाभिक्खणिसेवणिद्दयता।। 3. निशीथ चूर्णि के अनुसार सिद्धि विनिश्चय तथा सन्मतितर्कप्रकरण आदि दर्शनप्रभावक ग्रंथ हैं। इनको ग्रहण ' करने हेतु यतनापूर्वक प्रतिसेवना करता हुआ मुनि शुद्ध होता है, प्रायश्चित्त का भागी नहीं होता। 1. निचू 1 पृ. 162 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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