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________________ अनुवाद-जी-१ 319 480, 481. महाशिलाकंटक संग्राम में चेटक के रथिक ने वृक्ष पर चढ़कर बाण से कोणिक की पीठ पर प्रहार किया। वह बाण भी कोणिक के वज्रमय कवच के आवरण से टकराकर नीचे गिर गया। तब कोणिक ने क्षुरप्र से चेटक के शिर का छेद कर दिया। 482. इस दृष्टान्त का उपनय यह है कि कवच स्थानीय है-आहार, शत्रु है परीषह और राज्यस्थानीय है आराधना। 483. जैसे हाथी पर चढ़ने वाला व्यक्ति हाथी के पैरों को मोड़कर उन पर अपना पैर रखकर हाथी पर चढ़ता है, वैसे ही भक्तपरिज्ञा को स्वीकार करने वाला आहार के द्वारा उत्तम ध्यान में आरूढ़ होता है। 484. जैसे उपकरण से रहित पुरुष अपने कार्य को सिद्ध नहीं कर सकता, वैसे ही आहार के बिना भक्तप्रत्याख्याता मुनि परीषहों को नहीं जीत सकता। यहां ये दृष्टान्त हैं४८५-८७. जैसे फसल काटने वाला दात्र -दांती के बिना, नदी पार करने वाला नौका के बिना, संग्राम में योद्धा शस्त्रों के बिना, पथिक जूतों के बिना, रोगी औषध के बिना, शिक्षक (संगीत आदि सिखाने वाला) उपकरणों के बिना अपने कार्य को नहीं साध सकते। इसी प्रकार समाधि का इच्छुक व्यक्ति आहार के बिना समाधि को नहीं साध सकता अतः समाधि के लिए उस भक्तप्रत्याख्याता को आहार देना चाहिए। 488. धृति और संहनन से हीन तथा परीषहों को सहने में असमर्थ व्यक्ति चन्द्रकवेध्य' –पुतली की आंखों को वेधने से चूक जाता है, वैसे ही कवचभूत आहार के बिना भक्तप्रत्याख्याता विचलित हो जाता है। 489. (शिष्य पूछता है-) जिसने शरीर को छोड़ दिया, उसके मन में भोजन के प्रति कैसी आसक्ति? (आचार्य उत्तर देते हैं-) समाधि की प्राप्ति के लिए उसे अंत समय में आहार दिया जाता है। 490. निर्यापक साधु शुद्ध आहार-पानी की गवेषणा करते हैं। प्रतिदिन आहार की हानि होने पर या शुद्ध आहार की प्राप्ति न होने पर पूर्वोक्त पंचक यतना' से गवेषणा कर अन्यत्र गुप्त रूप से उस आहार को स्थापित करते हैं। 491. निर्व्याघात रूप से भक्तप्रत्याख्याता के कालगत हो जाने पर उसके शरीर का विधिपूर्वक परिष्ठापन करना चाहिए। उसके शरीर पर चिह्न करना चाहिए। चिह्न न करने पर चार गुरु (उपवास) प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 492. उपकरण और शरीर पर चिह्न न करने पर शव को देखकर कोई दण्डिक मार्गणा-गवेषणा करता 1. चन्द्रकवेध्यक का अर्थ है-आठ अर वाले चक्र के ऊपर पुत्तलिका की अक्षिचन्द्रिका को बींधना।' १.निभा 3424 चू पृ. 212; चक्राष्टकमुपरिपुत्तलिकाक्षिचन्द्रिकावेधवत् दराराध्यमनशनं। 2. पंचकहानि के लिए देखें गा. 418 का दूसरा टिप्पण। . 3. मृत साधु के शरीर और उपकरण-दोनों पर चिह्न किया जाता है। शिर का लोच किया जाता है। मुख पर मुखवस्त्रिका बांधी जाती है। हाथ-पैर बांधे जाते हैं।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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