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________________ 70 जीतकल्प सभाष्य 558. एवं जहाणुरूवा, संपतिकालम्मि अस्थि जह सोधी। विजंति य सोधिकरा, तं सव्वेतं समक्खातं // 559. एसाऽऽगमववहारो, जहोवदेसं जहक्कम कहितो। एत्तो सुतववहारं, सुण वच्छ! जहाणुपुव्वीए'। 560. णिज्जूढं चोद्दसपुव्विएण' जं भद्दबाहुणा सुत्तं। पंचविधो ववहारो, दुवालसंगस्स नवणीतं // 561. जो सुतमहिज्जति बहुं, सुत्तत्थं च णिउणं ण याणाति। . कप्पे ववहारम्मि य, ‘ण सो'३ पमाणं सुतधराणं // 562. जो सुतमहिज्जति बहु, सुत्तत्थं च णिउणं वियाणाति। . कप्पे ववहारम्मि य, सो उ पमाणं सुतधराणं॥ 563. कप्पस्स य णिज्जुत्तिं, ववहारस्सेव परमणिउणस्स। जो अत्थतो न जाणति, सो ववहारी णऽणुण्णातो॥ 564. कप्पस्स य णिज्जुत्तिं, ववहारस्सेव परमणिउणस्स। जो अत्थतो विजाणति, ववहारी सो अणुण्णातो // 565. एसो सुतववहारो, जहोवदेसं जहक्कम कहितो। आणाए ववहारं, सुण वच्छ! जहक्कम वोच्छं॥ 566. समणस्स उत्तिमढे, सल्लुद्धरणकरणे अभिमुहस्स। __दूरत्था जत्थ भवे, छत्तीसगुणा उ आयरिया॥ 567. अपरक्कमो मि जातो, गंतुं जे. कारणं तु उप्पण्णं / अट्ठारसमण्णतरे, वसणगते इच्छिमो आणं // 568. अपरक्कमो तवस्सी, गंतुं ण चतेइ सोहिकरमूलं। सीसं पेसेति तहिं, जहिच्छ सोधिं तुमसमीवे // 1. गा. 559 से 567 तक की नौ गाथाओं की तुलना हेतु 6. इस गाथा के स्थान पर व्य 4440, 4441 में निम्न दो देखें व्य 4430 से 4435, 4437-39 / गाथाएं हैं२. पुव्वीएण (पा, ब, ला)। अपरक्कमो तवस्सी, गंतुं सो सोधिकारगसमीवं। ३.सोन (व्य)। आगंतु न चाएती, सो सोहिकरो वि देसातो॥ 4. “ज्जंति (पा, ला)। अध पट्ठवेति सीसं, देसंतरगमणनट्ठचेट्ठागो। 5. इस गाथा के बाद व्य (4436) में निम्न गाथा अतिरिक्त है इच्छामऽज्जो काउं, सोहिं तुब्भं सगासम्मि॥ तं चेवऽणुमज्जंते, ववहारविधिं पउंजति जहुत्तं / एसो सुतववहारी, पण्णत्तो धीरपुरिसेहिं //
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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