________________ पाठ-संपादन-जी-१ 569. सो वि अपरक्कमगती, सीसं पेसेति धारणाकुसलं। णातु तहिं जो जोग्गो, इमेण विहिणा परिच्छित्ता'। 570. अपरक्कमो य सीसं, आणापरिणामगं परिच्छेज्जा। रुक्खे व बीयकाए, सुत्ते 'वाऽमोहणाऽऽधारिं '2 // 571. दट्ठ महल्लमहीरुह', भणितो रुक्खे विलग्गितुं डेव। अपरिणतो बेति 'तओ, णो'६ वट्टति रुक्खें आरोढुं // 572. किं वा मारेतव्वो, अहयं? तो बेह डेव रुक्खातो। अतिपरिणामो भणती, इय होऊ अम्ह वेसिच्छा // 573. बेति गुरू अह तं तू, 'अपरिगतऽत्थे य भाससे" एवं / किं व मए तं भणितो, आरुभ रुक्खे तु सच्चित्ते? // 574. तव-णियम-णाणरुक्खं, आरुहिउं' भवमहण्णवावत्तं / * संसारागडमूलं', डेवेहि 'मए तुम 12 भणितो॥ 575. जो पुण परिणामो खलु, आरुभ भणितो तु सो विचिंतेती। णेच्छंति पावमेते, जीवाणं थावराणं पि" // 576. किं पुण पंचिंदीणं?, तं भवितव्वेत्थ कारणेणं तु। आरुहणववसितं तू, वारेति 'गुरूऽहवा थंभे 5 // 577. एवाऽऽणध बीयाई, भणिते पडिसेह अपरिणामो तु। अतिपरिणामो पोट्टल, बंधूणं आगतो तत्थ६ // 578. 'पच्चाह गुरू ते तू, जहोदिया 'ऽऽणेह अंबिलीबीए। ___ण विरोहसमत्थाई, सच्चित्ताई व भणिताइं१८ // १.व्य (4442) में इस गाथा का उत्तरार्ध इस प्रकार है- * एयस्स दाणि पुरतो, करेति सोहिं जहावत्तं। 2. 'धारि (पा, ला),व्य 4443 / 3. महंतम' (व्य 4444) / 4. गणिओ (व्य)। ५.डेवे (ब)। 6. तहिं न (व्य)। ७.व्य 4445 / 8. 'रिच्छियत्थे पभाससे (व्य 4446) / 9. हियं (ब)। 10. वावण्णं (व्य 4447) / 11. संसारगडुकूलं (व्य)। १२.त्ती मए (व्य)। 13. तेति (ब)। 14. तु (पा), व्य 4448 / 15. गुरूऽववटुंभे (व्य 4449) / 16. व्य 4450 / 17. ते वि भणिया गुरूणं, मएँ भणिया (व्य 4451) / 18. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.१५।