________________ अनुवाद-जी-७०,७१ 465 पुरुष होते हैं-आत्मतरक, परतरक, उभयतरक, नोभयतरक तथा अन्यतरक। 1960. पुरुष चार प्रकार के होते हैं * धृति से दुर्बल, देह से बलिष्ठ। * धृति और देह-दोनों से बली। * धृति से बली, देह से दुर्बल। * धृति और देह-दोनों से दुर्बल। 1961. धृति और देह से बलशाली को पूरा प्रायश्चित्त, धृति से हीन तथा शरीर से बलिष्ठ को लघुक तथा . उभय से हीन को भी लघुक प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1962, 1963. कुछ आचार्य पुरुषों के आत्मतरक आदि पांच विकल्प बताते हैं। प्रथम आत्मतरक, दूसरा परतरक', तीसरा उभयतरक' तथा चौथे और पांचवें को क्रमशः नोभयतरक तथा अन्यतरक जानना चाहिए। 1964. शिष्य प्रश्न पूछता है कि आत्मतरक और परतरक में क्या अन्तर है? आचार्य कहते हैं कि आत्मतरक को उपवास आदि जो भी प्रायश्चित्त दिया जाता है, वह उसे वहन कर लेता है। 1965. जो वैयावृत्त्य करके गच्छ का उपग्रह-उपकार करने में संलग्न रहता है, वह परतरक कहलाता है। इस प्रकार आत्मतरक और परतरक की चतर्भगी जाननी चाहिए। 1966. जो वैयावृत्त्य करने में समर्थ होता है, दो की वैयावृत्त्य करने में समर्थ नहीं होता, उसे पांचवां अन्यतरक पुरुष जानना चाहिए। 71. कल्पस्थित आदि चतुर्विध पुरुष, इसके प्रतिपक्ष अकल्पस्थित आदि चतुर्विध पुरुष, सापेक्ष और निरपेक्ष आदि-इन सब पुरुषों की (कल्पस्थिति का वर्णन करूंगा)। 1967. पुरुष चार प्रकार के होते हैं-१. कल्पस्थित 2. परिणत 3. कृतयोगी 4. तरमाणक। इसके प्रतिपक्ष में भी चार प्रकार के पुरुष होते हैं-१. अकल्पस्थित 2. अपरिणत 3. अकृतयोगी 4. अतरमाणक। 1, 2. परतरक पुरुष को बहुक प्रायश्चित्त स्थान में भी अल्प प्रायश्चित्त दिया जाता है क्योंकि वैयावृत्त्य में संलग्न रहने के कारण वह तपोयोग का वहन नहीं कर सकता। उभयतरक को यदि इंद्रियों के अतिक्रमण आदि से पुनः प्रायश्चित्त प्राप्त होता है तो पंचमास पर्यन्त प्रायश्चित्त भी भिन्नमास में समाविष्ट हो जाता है। १.व्यभा 501 २.व्यभा 483 3. व्यवहारभाष्य में नोभयतरक भेद न होकर पुरुषों के चार प्रकार ही प्रज्ञप्त हैं। १.व्यभा 479 4. आत्मतरक वैयावृत्त्य करने में समर्थ होने पर भी तप ही करता है, वैयावृत्त्य नहीं करता। परतरक तपस्या करने में समर्थ होने पर भी वैयावृत्त्य ही करता है, तप नहीं। 5. * आत्मतरक है, परतरक नहीं * परतरक है, आत्मतरक नहीं . * आत्मतरक भी, परतरक भी •न आत्मतरक, न परतरक। 6. मध्यवर्ती 22 तीर्थंकरों के साधु तथा महाविदेह के साधु अकल्पस्थित होते हैं। 7. जो धृति और संहनन सम्पन्न होते हैं, वे तरमाणक पुरुष कहलाते हैं।' १.निभा 78 चू पृ. 38; संघयणे संपण्णा,धितिसंपण्णा य होंति तरमाणा।