SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 658
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 464 जीतकल्प सभाष्य 1947. द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से जिनेश्वर द्वारा उपदिष्ट तत्त्व को उसी रूप में श्रद्धा नहीं करने वाले साधु को अपरिणामक जानना चाहिए। 1948. जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से जिनाख्यात तत्त्व के कुछ अंश को उत्सूत्र रूप में प्ररूपित करता है, उसे अतिपरिणामक साधु जानना चाहिए। 1949. परिणामक की मति कार्य में यथार्थ रूप से परिणमित होती है, अपरिणामक की मति उस रूप में परिणत नहीं होती लेकिन अतिपरिणामक की बुद्धि अधिक रूप में परिणत होती है। 1950. परिणामक शिष्य की बुद्धि उत्सर्ग और अपवाद-इन दोनों में परिणत होती है, अपरिणामक की * उत्सर्ग में परिणत होती है लेकिन तीसरे अतिपरिणामक की बुद्धि अतिअपवाद में ही परिणत होती है। 1951. आम आदि के दृष्टान्त से शिष्य की परीक्षा करनी चाहिए, जैसे कोई गुरु शिष्य से कहे कि आम लेकर आओ। 1952. परिणामक शिष्य कहता है कि मैं सचित्त लाऊं अथवा अचित्त? लवण आदि से भावित लाऊं या अभावित? कितने प्रमाण वाले अर्थात् छोटे या बड़े लेकर आऊं? गुठली वाले लेकर आऊं या गुठली रहित, टुकड़े किए हुए लेकर आऊं अथवा बिना टुकड़े किए हुए? 1953, 1954. यह सुनकर गुरु कहते हैं कि मैंने आम्र प्राप्त कर लिए, यदि अपेक्षा होगी तो पुनः कहूंगा। जो अपरिणामक होता है, वह आम लाने के लिए कहने पर इस प्रकार बोलता है-"क्या आप पित्त-प्रकोप के कारण प्रलाप कर रहे हैं? दुबारा ऐसी बात मत कहना। कोई दूसरा इसको न सुन ले, मैं भी यह सावध वचन सुनना नहीं चाहता।" 1955. अतिपरिणामक शिष्य कहता है कि अहो! आम का काल व्यतीत हो रहा है, आपने इतनी देर से क्यों कहा? हमारी भी आम खाने की इच्छा है पर यह बात कहने में हम समर्थ नहीं हैं। 1956. वह अतिपरिणामक शिष्य आमों का भार लेकर आया और बोला-"अन्य फल और लेकर आऊ क्या?" तब गुरु ने अपरिणामक और अतिपरिणामक शिष्य को उपालम्भ देते हुए कहा१९५७. तुम लोग मेरे कथन के अभिप्राय को नहीं समझे। मेरे वचन को पूरा सुने बिना तुम ऐसा वचन कह रहे हो। मेरे कथन का अभिप्राय था कि शुक्लाम्ल लवण से भावित, छिन्न-भिन्न किए हुए, दोच्वंगभोजन का द्वितीय अंग अर्थात् शाक रूप में पकाए गए आम लाने हैं। 1958. इसी प्रकार वृक्ष के प्रसंग में भी अपरिणत शिष्य को आचार्य कहते हैं कि मैंने निष्पाव-वल्लधान्य आदि वृक्ष के लिए कहा, न कि हरित वृक्ष के लिए। 1959. इसी प्रकार अतिपरिणामक शिष्य द्वारा सचित्त बीजों को लाने पर गुरु कहते हैं कि मैंने इमली के विध्वस्त-योनिक बीजों को लाने के लिए कहा था, न कि उगने में समर्थ बीजों को लाने के लिए। 70. धृति और संहनन से युक्त तथा इन दोनों से हीन पुरुष के आधार पर चतुर्भंगी होती है। पंचविध 1. कथा के विस्तार हेतु देखें परि.२, कथा सं.५४।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy