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________________ अनुवाद-जी-६९ 463 1939. पुरुष के आधार पर कम, अधिक या उतनी ही मात्रा में प्रायश्चित्त देना चाहिए। वे पुरुष आदि संक्षेप में इस प्रकार जानने चाहिए। 69. पुरुष अनेक प्रकार के होते हैं -गीतार्थ-अगीतार्थ, समर्थ-असमर्थ,मायावी-ऋजु, परिणामक', अपरिणामक तथा अतिपरिणामक इनकी आम्र आदि वस्तु से परीक्षा होती है। 1940. कुछ पुरुष गीतार्थ तथा कुछ अगीतार्थ होते हैं। धृति और संहनन के आधार पर कुछ समर्थ तथा इनके न रहने पर कुछ असमर्थ जानने चाहिए। 1941. मायावी शठ तथा ऋजुप्राज्ञ साधु अशठ होते हैं। परिणामक आदि शिष्यों के बारे में मैं अब संक्षेप में कहूंगा। 1942. परिणामक, अपरिणामक और अतिपरिणामक–ये तीन प्रकार के शिष्य होते हैं। अंतिम दो में आम्र आदि का दृष्टान्त है, उसका विस्तार इस प्रकार है१९४३. जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से जिनेश्वर द्वारा कथित उपदेश को उसी रूप में श्रद्धा करता है, उस साधु को परिणामक जानना चाहिए। 1944. जो जिसके लिए कल्प्य या अकल्प्य होता है, उस सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्य को यथार्थ रूप में जानता है, वह परिणामक शिष्य कहलाता है। : 1945, 1946. क्षेत्र की दृष्टि से मार्ग में जो यतना रखनी है, उसको उसी रूप में श्रद्धा करता है, काल की दृष्टि से सुभिक्ष-दुर्भिक्ष आदि में जो जिस रूप में कल्पनीय है, भाव से आगाढ़ स्थिति में स्वस्थ और ग्लान के लिए जो जिस रूप में करणीय है, उसको उसी रूप में श्रद्धा करके कार्य करने वाला परिणामक साधु कहलाता है। १.गुरु के द्वारा जैसा निर्देश दिया जाता है, उसी रूप में श्रद्धा करने वाला तथा आचरण करने वाला परिणामक शिष्य ''होता है। १.जीचू पृ.२३;जहा भणियं सद्दहंता आयरंताय परिणामगा भण्णंति। २.जो उत्सर्ग में ही श्रद्धा करता है, अपवाद में श्रद्धा नहीं करता और न ही उसका आचरण करता है, वह अपरिणामक शिष्य होता है। १.जीचू पृ. 23; अपरिणामगा पुणजे उस्सग्गमेव सद्दहति आयरन्ति य, अववायं पुणन सद्दहति नायरंति य। ३.जो अपवाद का ही आचरण करता है, उसी में आसक्त रहता है, उत्सर्ग में श्रद्धा नहीं करता, वह अतिपरिणामक शिष्य होता है। १.जीचू पृ. 23; अइपरिणामगाजे अववायमेवायरंति तम्मि चेव सज्जंति, न उस्सग्गे। ४.निशीथ को नहीं पढ़ने वाला अगीतार्थ होता है। १.जीचूवि पृ.५३; अणहीयनिसीहो अग्गीयत्थो। ५.परिणामक शिष्य दो प्रकार के होते हैं -1. आज्ञा परिणामक-जो जिनेश्वर भगवान् द्वारा प्रज्ञप्त तत्त्व पर असंदिग्ध भाव से श्रद्धा रखता है, वह आज्ञापरिणामक है। 2. दृष्टान्त परिणामक-जो हेतुगम्य परोक्ष पदार्थ को - प्रत्यक्ष दृष्टान्त से बुद्धि में आरोपित करता है, उस पर श्रद्धा करता है, वह दृष्टान्त परिणामक है।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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