________________ 462 जीतकल्प सभाष्य 1926. ग्रीष्मकाल में यथालघुस्वक के जघन्य-जघन्य में निर्विगय, जघन्य-मध्यम में पुरिमार्ध तथा जघन्य-उत्कृष्ट में एकासन तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1927. ग्रीष्मकाल में लघुस्वतर के मध्यम-जघन्य में पुरिमार्ध, मध्यम-मध्यम में एकासन तथा मध्यमउत्कृष्ट में आयम्बिल तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1928. ग्रीष्मकाल में लघुस्वक के उत्कृष्ट-जघन्य में एकासन, उत्कृष्ट-मध्यम में आयम्बिल तथा उत्कृष्ट-उत्कृष्ट में उपवास तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1929. ग्रीष्मकाल में यथालघुक के जघन्य-जघन्य में पुरिमार्ध, जघन्य-मध्यम में एकासन तथा जघन्यउत्कृष्ट में आयम्बिल तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1930. ग्रीष्मकाल में लघुकतर के मध्यम-जघन्य में एकासन, मध्यम-मध्यम में आयम्बिल तथा . मध्यम-उत्कृष्ट में उपवास तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1931. ग्रीष्मकाल में लघुक के उत्कृष्ट-जघन्य में आयम्बिल, उत्कृष्ट-मध्यम में उपवास तथा उत्कृष्टउत्कृष्ट में बेले के तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1932. ग्रीष्मकाल में गुरुक के जघन्य-जघन्य में एकासन, जघन्य-मध्यम में आयम्बिल तथा जघन्यउत्कृष्ट में उपवास तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1933. ग्रीष्मकाल में गुरुकतर के मध्यम-जघन्य में आयम्बिल, मध्यम-मध्यम में उपवास तथा मध्यमउत्कृष्ट में बेले के तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1934. ग्रीष्मकाल में यथागुरुक के उत्कृष्ट-जघन्य में उपवास, उत्कृष्ट-मध्यम में बेला तथा उत्कृष्टउत्कृष्ट में तेले के तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1935. यह नवविध व्यवहार की काल के साथ प्रायश्चित्त-प्राप्ति और उसके दान का विस्तृत वर्णन किया गया है, उसे बुद्धि से जानना चाहिए। 68. भाव में हृष्ट और ग्लान के सम्बन्ध में हृष्ट को प्रायश्चित्त देना चाहिए, ग्लान को नहीं देना चाहिए अथवा ग्लान को उतना ही प्रायश्चित्त देना चाहिए, जितना वह काल के आधार पर सहन कर सके। १९३६.भाव के आधार पर हृष्ट, बलवान् और स्वस्थ को अधिक प्रायश्चित्त देना चाहिए। ग्लान को कुछ कम देना चाहिए, जिससे वह काल के आधार पर उसको सहन कर सके। 1937. लेश्या के भेद से शुभ और अशुभ भाव तीन-तीन प्रकार के होते हैं -तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम तथा मंद, मंदतर और मंदतम। 1938. पणग (निर्विगय) प्रायश्चित्त जितना अतिचार सेवन करने पर भी कोई साधु चरम-पाराञ्चित जितना प्रायश्चित्त प्राप्त करते हैं तथा कुछ साधु चरम–पाराञ्चित प्रायश्चित्त की प्राप्ति जितना अतिचार सेवन करने पर भी पणग (निर्विगय) प्रायश्चित्त को प्राप्त करते हैं, यह भाव निष्पन्न प्रायश्चित्त-प्राप्ति है।