________________ 466 जीतकल्प सभाष्य 1968. प्रतिष्ठा, स्थापना, स्थान, व्यवस्था, संस्थिति, स्थिति, अवस्थान, अवस्था, चिट्ठणा-ये सब एकार्थक हैं। 1969. कल्पस्थिति के छह प्रकार हैं-१. सामायिक 2. छेदोपस्थापनीय 3. निर्विशमान 4. निर्विष्टकाय ५.जिनकल्प 6. स्थविरकल्प। 1970. स्थिति, मर्यादा, न्यास और कल्प-ये एकार्थक हैं। शिष्य प्रश्न पूछता है कि यह कितने प्रकार का होता है। गुरु उत्तर देते हैं कि वह दस प्रकार का होता है, उसे मैं संक्षेप में कहूंगा। 1971. स्थितकल्प के दस प्रकार हैं१. आचेलक्य ६.व्रत 2. औद्देशिक 7. पुरुषज्येष्ठ धर्म 3. शय्यातरपिण्ड 8. प्रतिक्रमण 4. राजपिंड 9. मासकल्प 5. कृतिकर्म 10. पर्युषणाकल्प। 1972. सामायिक कल्प की संस्थिति नियमतः कितने स्थानों से स्थित अथवा अस्थित है? छेदोपस्थापनीय कल्प कितने स्थानों में स्थित है? 1973. वह सामायिक संयत चार स्थानों से स्थित, छह स्थानों से अस्थित तथा छेदोपस्थापनीय संयत दश स्थानों से नियमतः स्थित होते हैं। 1974. ये चार अवस्थित कल्प हैं-शय्यातरपिण्ड 2. कृतिकर्म 3. चातुर्याम धर्म 4. पुरुषज्येष्ठ। 1975. ये छह अनवस्थित कल्प हैं-१. आचेलक्य 2. औद्देशिक 3. राजपिंड 4. सप्रतिक्रमणधर्म 5. मासकल्प 6. पर्युषणाकल्प। 1. मुनि की आचार-मर्यादा, प्रथम, चरम और मध्यम तीर्थंकरों के शासन में होने वाला आचार-व्यवस्था का भेद। 2. प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के साधु दश कल्प में स्थित होते हैं। मध्यम बावीस तीर्थंकरों के साधु तथा महाविदेह क्षेत्र के साधु शय्यातरपिण्ड, चातुर्याम, पुरुषज्येष्ठ और कृतिकर्म-इन चार में स्थित कल्प वाले होते हैं तथा शेष आचेलक्य आदि छह कल्पों में अस्थित होते हैं / दश कल्पों में कुछ स्थानों का सभी पालन करते हैं अतः अनियत होने के कारण मध्यम बावीस तीर्थंकरों के साधु एवं महाविदेह के साधु अस्थितकल्प वाले होते हैं। 3. अचेल-वस्त्र सम्बन्धी राग-द्वेष होने पर वे अचेल रहते हैं अन्यथा सचेल रहते हैं। वे महामूल्यवान् और प्रमाण से अधिक वस्त्र भी रखते हैं। औद्देशिक-साधु के उद्देश्य से बनाया गया आधाकर्मिक भोजन दूसरे साधु के लिए कल्प्य हो जाता है। जिसके उद्देश्य से बनाया गया, उसके लिए कल्प्य नहीं होता। प्रतिक्रमण-वे अतिचार लगने पर प्रतिक्रमण करते हैं, अन्यथा नहीं करते। राजपिण्ड-दोष की संभावना होने पर वे राजपिण्ड का परिहार करते हैं, अन्यथा नहीं करते। मासकल्प-दोष की संभावना न हो तो वे एक स्थान पर पूर्व कोटि वर्ष तक रह सकते हैं, दोष की संभावना में मासकल्प पूर्ण हो या नहीं, विहार कर देते हैं। पर्युषणाकल्प-वर्षा के समय दोष संभावना की स्थिति में एक क्षेत्र में रहते हैं। दोष की संभावना न होने पर वर्षारात्र में भी विहार कर सकते हैं।