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________________ अनुवाद-जी-७१ 467 1976. पूर्व और पश्चिम अर्थात् प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के शासन काल में छेदोपस्थापनीय साधुओं के आचेलक्य आदि जो दश कल्प होते हैं, उनकी प्ररूपणा इस प्रकार है१९७७. अचेलक दो प्रकार के होते हैं -सदचेल तथा असदचेल। तीर्थंकर असदचेल तथा शेष सभी साधु सदचेल होते हैं। 1978. वस्त्र होने पर भी साधु अचेल कैसे होते हैं? आचार्य कहते हैं कि जिन कारणों से साधु अचेल होता है, उसे तुम सुनो। 1979. नदी को पार करते समय शिर पर कपड़ा बांधा जाता है लेकिन वस्त्र होने पर भी लोग उसको नग्न कहते हैं। परिजीर्ण वस्त्र वाली स्त्री जुलाहे से कहती है कि हे तंतुवाय! तुम शीघ्रता करके शाटिका दो, मैं निर्वस्त्र हूं। 1980. जीर्ण और खंडित वस्त्रों के कारण तथा शरीर को पूर्ण रूप से प्रावृत न कर सकने के कारण वस्त्रों के होते हुए भी निर्ग्रन्थ अचेलक होते हैं। 1981. आचार्य कहते हैं कि यदि तुम यह सोचते हो कि दरिद्र पथिक भी अचेल होने चाहिए, इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि दरिद्र पथिक आदि अभाव के कारण जीर्ण वस्त्र धारण करते हैं, न कि धर्मश्रद्धा से अतः वे अचेलक नहीं होते। 1982. वस्त्र प्राप्त होने पर भी साधु अल्प मूल्य वाले और खंडित वस्त्रों को धर्मबुद्धि से धारण करते हैं अतः वे सदचेल हैं। . 1983. प्रथम और अंतिम जिनेश्वर के तीर्थ में आचेलक्य धर्म होता है। मध्यम तीर्थंकरों के तीर्थ में सचेल और अचेल-दोनों प्रकार के धर्म होते हैं। 1984. बीच के बावीस तीर्थंकरों के श्रमण अचेल' रहने अथवा वस्त्र धारण करने पर भी भगवान् की * आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते। प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के श्रमण स्वल्प मूल्य वाले तथा भिन्न खंडित वस्त्रों को धारण करते हैं। उनके लिए इन कारणों का अपवाद है१९८५. बिना कारण स्वस्थ व्यक्ति को लिंगभेद करना कल्पनीय नहीं है। शिष्य पूछता है कि निरुपहत क्या है? आचार्य कहते हैं कि यथाजात लिंग निरुपहत कहलाता है। 1986. जन्म दो प्रकार का होता है-प्रथम माता की कुक्षि से तथा दूसरा प्रव्रज्या ग्रहण करने पर। चतुर्विध संसार से मुक्ति हेतु प्रव्रज्या ग्रहण की जाती है। . 1. उत्तराध्ययन में प्रतिरूपता (अचेलता) से होने वाले लाभों का वर्णन मिलता है। अचेलता से जीवन हल्केपन को प्राप्त करता है, उपकरणों से हल्का बना जीव अप्रमत्त, प्रकट लिंग वाला (व्यक्त लिंगधारी), प्रशस्त लिंग वाला, विशुद्ध सम्यक्त्व वाला, पराक्रम और समिति से परिपूर्ण, सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के लिए विश्वसनीय, अल्प प्रतिलेखन वाला, जितेन्द्रिय तथा विपुल, तप और समितियों का सर्वत्र प्रयोग करने वाला होता है। १.उ 29/43 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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