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________________ 468 जीतकल्प सभाष्य 1987, 1988. निष्कारण लिंग-भेद के प्रकार एवं प्रायश्चित्त इस प्रकार हैं-कंधे पर प्रावरण रखने एवं शीर्षद्वारिका' करने पर लघुमास, संयती प्रावरण करने पर चतुर्लघु, गरुड़ पक्षी की भांति प्रावरण करने पर, अर्धांश करने पर तथा कटिपट्ट बांधने पर-इन तीनों में चतुर्गुरु प्रायश्चित्त जानना चाहिए। गृहस्थलिंग या परलिंग करने पर मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 1989. कारण उपस्थित होने पर इन कारणों से साधु लिंग-भेद कर सकता है-ग्लानत्व, रोग, लोच, शरीर-वैयावृत्त्या आदि। 1990. अथवा इन कारणों से लिंग-भेद किया जा सकता है-क्षेत्रकल्प-देश विशेष के आचार के अनुसार अभिन्न वस्त्र धारण करना। वर्षावास में, अभावित अवस्था में, असहिष्णु अवस्था में, प्रात:काल, मार्ग में, सागारिक प्रतिबद्ध उपाश्रय में तथा स्तेन की आशंका से बहुमूल्य उपधि को कंधे पर रखकर पुनः शरीर को प्रावृत कर रास्ते को पार किया जा सकता है। 1991. अशिव में, दुर्भिक्ष में, राजप्रद्वेष होने पर, वादि के प्रद्विष्ट होने पर, आगाढ़ कारण होने पर-इन सब में अन्यलिंग करके कालक्षेप या गमन कर देना चाहिए। 1992. साधु-साध्वियों के लिए ओघतः या विभागतः कुल, संघ या गण का संकल्प करके जो भक्तपान तैयार किया जाता है, वह स्थितकल्प साधु-साध्वियों के लिए कल्प्य नहीं होता, अस्थितकल्प में जिसके उद्देश्य से कृत होता है, उसको नहीं कल्पता, दूसरों को कल्पता है। 1993. आचार्य, अभिषेक'-उपाध्याय तथा भिक्षु के ग्लान होने पर आधाकर्म की भजना है। अटवी में प्रवेश करने पर यदि तीन बार अन्वेषण करने पर भी शुद्ध आहार न मिले तो चौथे परिवर्त में आधाकर्म आहार ग्रहण करने की भजना है। 1994. शय्यातरपिण्ड तीर्थंकरों के द्वारा प्रतिषिद्ध है। शय्यातरपिण्ड ग्रहण करने से आज्ञाभंग, अज्ञातोञ्छ का सेवन तथा उद्गम दोषों की शुद्धि नहीं होती। गृद्धि का अभाव नहीं होता, लाघवता नहीं होती, (भविष्य में) शय्या की प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है अथवा उसका सर्वथा विच्छेद हो जाता है। 1995. प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों को छोड़कर मध्यम बावीस तीर्थंकरों तथा विदेहज तीर्थंकरों ने आधाकर्म ग्रहण की लेश मात्र आज्ञा दी है लेकिन सागारिक या शय्यातरपिण्ड की आज्ञा नहीं दी। 1996. आगाढ़ या अनागाढ़ द्विविध ग्लानत्व की स्थिति में शय्यातरपिण्ड ग्रहण किया जा सकता है। शय्यातर द्वारा निमंत्रण देने पर, द्रव्य की दुर्लभता होने पर, अशिव, दुर्भिक्ष, राजप्रद्वेष तथा तस्कर आदि के भय में शय्यातरपिण्ड अनुज्ञात है। 1. कल्प से शिर को आच्छादित करना शीर्षद्वारिका है। 2. बृभाटी पृ. 1682 / 3. जो सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ का ज्ञाता है, आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करने योग्य है, वह अभिषेक कहलाता है। 1. बृभा 4336 टी पृ. 1174 ; अभिषेकःसूत्रार्थतदुभयोपेत आचार्यपदस्थापनार्हः।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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