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________________ 334 जीतकल्प सभाष्य दूसरे स्थान से यावत् छठे व्रत-रात्रिभोजन विरमण पर्यन्त सभी स्थानों का आसेवन किया हो तो मुनि उसकी आलोचना करे। 620, 621. प्रथम कार्य अर्थात् दर्प प्रतिसेवना, प्रथम पद अर्थात् निष्कारण दर्प से द्वितीय षट्क (काय षट्क) के अन्तर्गत प्रथम स्थान पृथ्वीकाय आदि की विराधना की हो। इसी प्रकार दूसरे स्थान अप्काय . आदि से लेकर त्रसकाय आदि पदों में जानना चाहिए। 622, 623. प्रथम कार्य अर्थात् दर्प प्रतिसेवना, प्रथम पद अर्थात् निष्कारण दर्प से तृतीय षट्क (अकल्प्य,गृहिभाजन, पल्यंक, निषद्या, स्नान और विभूषा) के अन्तर्गत प्रथम स्थान अकल्प्य पिंड ग्रहण आदि का आसेवन किया हो, इसी प्रकार दूसरे स्थान गृहिभाजन यावत् विभूषा पर्यन्त सभी स्थानों का आसेवन किया हो तो उसकी आलोचना करे। 624. प्रथमपद अर्थात् दर्प प्रतिसेवना को नहीं छोड़ता हुआ दूसरे अकल्प्य उपभोग से लेकर दसवीं निःशंक आदि को प्रथम षट्क आदि 18 स्थानों में पुनः पुनः संचरित करना चाहिए। 625. दर्प प्रतिसेवना में दर्प आदि दश पदों में अठारह स्थानों का संचरण करना चाहिए। दर्प प्रतिसेवना के 10 भेदों से अठारह पदों का गुणा करने पर 180 गाथाएं होती हैं। 626. इसी प्रकार दूसरी कल्पप्रतिसेवना के दर्शन आदि 24 पदों का 18 से गुणा करने पर 432 गाथाएं होती हैं। 627. द्वितीय कार्य अर्थात् कल्प प्रतिसेवना प्रथम पद अर्थात् दर्शन से सम्बन्धित प्रथम षट्क (प्राणातिपात आदि) के प्रथम षट्क (प्राणातिपात आदि) का आसेवन किया हो तो मुनि उसकी आलोचना करे। 628. द्वितीय कार्य अर्थात् सकारण कल्प प्रतिसेवना, द्वितीय पद अर्थात् ज्ञान द्वितीय अभिलाप से (प्रथम कार्य एवं प्रथम पद की भांति) सारी गाथाएं कहनी चाहिए। 629. प्रथम स्थान है दर्प प्रतिसेवना। दर्प में भी प्रथम अर्थात् निष्कारण धावन आदि, प्रथम षट्क का अर्थ है-छह व्रत। उनमें भी प्रथम है प्राणातिपात। 630. इसी प्रकार मृषावाद, अदत्त, मैथुन, परिग्रह और रात्रिभोजन के बारे में जानना चाहिए। द्वितीय षट्क में पृथ्वीकाय आदि षट्काय तथा तृतीय षट्क में (अकल्प, गृहिभाजन, पर्यंक, निषद्या, स्नान और विभूषा) का समावेश होता है। 631. इस प्रकार दर्प पद में अठारह पदों की चारिका तथा दूसरी अकल्प्य प्रतिसेवना आदि के सभी भेदों के साथ भी अठारह पदों की योजना होती है। 1. प्रथम कार्य का अर्थ है-दर्प प्रतिसेवना तथा द्वितीय कार्य का तात्पर्य है-कल्प प्रतिसेवना। प्रथम, द्वितीय आदि पद से दर्प प्रतिसेवना के दश भेद तथा कल्प प्रतिसेवना के 24 भेद जानने चाहिए। दोष-सेवन के तीन षट्क हैं-प्रथम षट्क-प्राणातिपात विरमण से रात्रिभोजन विरमण तक, द्वितीय षट्क-पृथ्वीकाय आदि षड्जीवनिकाय, तृतीय षट्क-अंतिम छह स्थान (अकल्प, गृहिपात्र, पर्यंक, निषद्या, स्नान और विभूषा।)
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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